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Archive for September 9, 2013

मनुष्य के अस्तित्व का अवमूल्यन है आत्महत्या

विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस (10 सितम्बर) पर विशेष 

राहुल शर्मा

Courtesy – http://www.redbubble.com

                                                 

आत्महत्याओं के केवल जैविक ही नहीं बल्कि सामाजिकआर्थिकराजनैतिक व मनोवैज्ञानिक आयाम भी हैं जो इसके साथ प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़ते हैं। सन 1995 से अभी तक देशभर में लाख से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की वे सभी मनोरोगी थे ये मानना उचित नहीं। उन किसानों की आत्महत्याएं सीधे-सीधे जनविरोधी आर्थिक नीतियों का परिणाम हैं यह कहा और बताया जाना बहुत ज़रूरी है। विकास के दोषपूर्ण माडल के गर्भ में आत्महत्याएं ही पलती हैं जैसा कि हम होते हुए देख भी रहे हैं।

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स साल का जून महीना नवोदित फ़िल्म अभिनेत्री जिया खान की आत्महत्या की ख़बरों से सुर्ख़ियों में रहा। यह भी कितना त्रासदपूर्ण था कि सुबह-सुबह जिया के आत्महत्या कर लेने की ख़बर टीवी पर देख श्रीगंगानगर में एक 12 साल का पांचवी कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा कुछ ज़्यादा ही आहत हुआ। उसने डीवीडी प्लेयर में जिया की फ़िल्म लगा टीवी ऑन कर दी और फ़िल्म देखते-देखते फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। आत्महत्या के सन्दर्भ में कहा जाता है कि “यह सच नहीं कि आत्महत्या करने वाले सारे लोग मरना ही चाहते थे पर यह सही है कि वे सारे लोग जो जीना नहीं चाहते, वे आत्महत्या नहीं कर लेते।”
दुनियाभर में लगातार बढ़ रहे आत्महत्या के मामले एक व्यापक स्वास्थ्य समस्या के तौर पर उभरे हैं। हर साल दुनियाभर में क़रीब 10 लाख से ज़्यादा लोग आत्महत्या कर लेते हैं जबकि इसके 20 गुना ज़्यादा लोग आत्महत्या करने का प्रयास करते हैं, ऐसा विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है। आत्महत्या के बार-बार विचार कितने लोगों को आते हैं, यह जान व बता पाना असंभव है। आत्महत्या की समस्या युवावस्था में मृत्यु के तीन बड़े कारणों में शुमार होती है। इस बाज़ारवादी दौर में जब बेतहाशा बढ़ती मुफ़लिसी को रेशमी पर्दों से ढँक कर पूंजीवाद के कार्निश बजाए जा रहे हों तब यह कहना क्या ग़ैरलाजिमी है कि अमानुषिक बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था और बढ़ती आत्महत्याओं के बीच गहरे अंतर्संबंध हैं ?
दुनियाभर की कुल आत्महत्याओं में से 86 प्रतिशत अल्प व मध्यम आय वाले देशों में होती हैं। इसको गहरे काले शब्दों में बार-बार लिखे लिखे जाने की ज़रूरत है कि, आवारा वित्तीय पूंजी के तमाशों से उपजी चकाचौंध दुनियाभर में आत्महत्याओं के ग्राफ़ में लगातार इजाफ़ा कर रही है। यह अनुमान है कि कुल जनसंख्या का तक़रीबन 5 फ़ीसदी लोग अपने जीवनकाल में एक न एक बार अवश्य ही आत्महत्या का प्रयास करते हैं। आत्महत्या के मानसिक व सामाजिक प्रभाव बहुत गहरे होते हैं जो कि परिवारों व समुदाय को व्यापक तौर पर प्रभावित करते हैं साथ ही इससे होने वाली आर्थिक हानि किसी भी देश के स्तर पर प्रतिवर्ष अरबों खरबों रुपयों की होती है।
भारत में भी आत्महत्याओं के मामलों में लगातार इज़ाफ़ा हुआ है जिसकी तस्दीक राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े करते हैं। सन 2012 में यह आलम रहा कि यहाँ हर एक घंटे में 15 लोगों ने आत्महत्या की। इस प्रकार गए साल 1 लाख 35 हज़ार 445 लोगों ने ख़ुद ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। आंकड़े बताते हैं कि आत्महत्या से जीवन गंवाने वालों में पुरुषों की संख्या महिलाओं से ज़्यादा है लेकिन आत्महत्या के प्रयासों में महिलाएं आगे हैं। यह भी देखने में आया है कि पुरुषों की आत्महत्या के पीछे ज़्यादातर सामाजिक व आर्थिक कारण ज़िम्मेवार होते हैं जबकि अधिकतर महिलाएं भावनात्मक व व्यक्तिगत कारणों से आत्महत्या करती हैं।
ई वज़हों से आत्महत्या के आंकड़ों में हमेशा ही त्रुटि बनी रहती है क्योंकि तमाम ऐसे मामले ज़ाहिर नहीं हो पाते या उन्हें कोई और रूप दे दिया जाता है। कलंक, धार्मिक मान्यताओं, कानूनी पेचीदगियों व सामाजिक प्रवृत्तियों के चलते तमाम आत्महत्याएं रिपोर्ट ही नहीं हो पातीं।
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किशोरावस्था में भी आत्महत्याओं के मामले बड़ी तेज़ी से बढ़ रहे हैं। इस आयुवर्ग में लड़कियां लड़कों से ज़्यादा जान गंवाती हैं। हमारे मुल्क़ की यह त्रासदी है कि बच्चों और उनके पालकों के सम्बन्ध आज भी कई स्तरों पर सामंती क़िस्म के हैं जिनके चलते अविभावक बच्चों को एक स्वतंत्र व्यक्ति न मान अपनी संपत्ति ही मानते हैं। इससे ये होता है कि वे अपने बच्चों के माता-पिता तो रहते हैं पर मित्र नहीं बन पाते। 14 से 19 वर्ष आयुवर्ग के 85 प्रतिशत किशोर-किशोरियां अपने आत्महत्या के विचारों को किसी न किसी के सामने अलग-अलग तरीक़ों से व्यक्त करते हैं। पालकों की तमाम सीमाओं, नासमझी या अन्य परिस्थितियों के कारण उनके बच्चों का व्यक्तित्व सही ढंग से विकसित नहीं हो पाता। अगर पालक अपने बच्चों से गहरे और बिना पूर्वाग्रहों के नहीं जुड़े हैं तो उनमें आपसी समन्वय नहीं कायम हो पाता और वे आधे-अधूरे जीवन में बड़े होते हुए आत्महत्या या अन्य समस्याओं के प्रति संवेदनशील होते जाते हैं और पालक उनकी समस्याओं को समझ ही नहीं पाते। इस उम्र में आवेश व आवेगपूर्ण अवस्थाओं में आकर आत्महत्या करने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा है।
सूचना तकनीक से बच्चे और किशोरावस्था के लोग ज़्यादा जुड़ते हैं। इसका बढ़ता प्रभाव आजकल दुनिया में आत्महत्या का एक नया तरीक़ा लोगों के सामने लाया है जिसे साइबर सुसाइड कहा जाता है। इन्टरनेट एवं सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ज़्यादा रहने वाले लोग दुनियाभर के तमाम अजनबियों से एक आभासी दुनिया के माध्यम से संपर्क में आते हैं। जिसमें वे वास्तविक दुनिया के बारे के एक दूजे से अपना आधा-अधूरा व विकृत नज़रिया शेयर करते हैं और हताशा की अवस्था में आत्महत्या का अनुबंध कायम कर लेते हैं जिसे वे एक तय समय पर क्रियान्वित कर बैठते हैं। इसलिए किसी भी देश में तकनीक के व्यापक फैलावों के साथ-साथ तार्किक व वैज्ञानिक सोच के निर्माण पर ज़्यादा काम होना चाहिए ताकि जनता नव तकनीकों के व्यावहारिक उपयोगों को समझ सके, जो नहीं होता। क्योंकि अक्सर तकनीक जनता के लिए नहीं बाज़ार के लिए ईजाद की जाती हैं।
ई मानसिक समस्याओं से आत्महत्या का बड़ा गहरा सम्बन्ध है। डिप्रेशन, नशे की आदतें व अत्यधिक तनावपूर्ण जीवनशैली जैसे तमाम कारण लोगों को आत्महत्या के लिए उकसाते हैं। कई लोग गंभीर क़िस्म की शारीरिक व मानसिक बीमारियों से तंग आकर भी आत्महत्या का रास्ता अख्तियार करते हैं। ऐसे लोग जिन्होंने आत्महत्या अथवा स्वयं को हानि पहुँचाने का पहले कोई गंभीर प्रयास किया हो वे अन्य लोगों की तुलना में आत्महत्या के प्रति 30 से 40 प्रतिशत ज़्यादा संवेदनशील होते हैं।
मुसीबत तब कई गुना बढ़ जाती है जब हमारे यहाँ किसी मानसिक समस्या से परेशान व्यक्ति को आत्महत्या के प्रयास में अपराधी मान उस पर आई. पी. सी. की धारा 309 के तहत क़ानूनी कार्यवाही की जाती है। यह सन 1860 का क़ानून है जिसमें 1 साल की सज़ा का प्रावधान है। नया मानसिक स्वास्थ्य संरक्षण अधिनियम-2013 जो कि राज्यसभा में विचाराधीन है में यह प्रावधान किया गया है कि आत्महत्या का प्रयास करने वालों पर क़ानूनी कार्यवाही के स्थान पर उनकी मानसिक स्थिति की जाँच कर उनका उपचार कराया जाये। इस अधिनियम के क़ानूनी रूप लेने पर आत्महत्या का गैर-अपराधीकरण होगा ऐसी उम्मीदें जताई जा रही हैं।
त्महत्याओं के केवल जैविक ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व मनोवैज्ञानिक आयाम भी हैं जो इसके साथ प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़ते हैं। सन 1995 से अभी तक देशभर में 3 लाख से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की वे सभी मनोरोगी थे ये मानना उचित नहीं। उन किसानों की आत्महत्याएं सीधे-सीधे जनविरोधी आर्थिक नीतियों का परिणाम हैं यह कहा और बताया जाना बहुत ज़रूरी है। विकास के दोषपूर्ण माडल के गर्भ में आत्महत्याएं ही पलती हैं जैसा कि हम होते हुए देख भी रहे हैं।

लेकिन आत्महत्या की प्रवृत्ति को महज़ एक मानसिक समस्या मान कर उसका मात्र मानसिक उपचार करवाना एवं उससे सम्बद्ध अन्य कारणों की अनदेखी करना विकास के माडल की ही एक और विसंगति है। इसलिए आत्महत्याओं की रोकथाम हेतु मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के विकास के साथ-साथ अन्य स्तरों पर ज़्यादा पहल की जानी आवश्यक हैं। यह देखे जाने की ज़रूरत है कि सामजिक सरोकारों को क्यों तिलांजलि दी जा रही है जिससे मनुष्य में कहीं गहरे एकांतिकता पैठ रही है। उस तत्व की भी पहचान ज़रूरी है जो मनुष्य के अपने अस्तित्व के प्रति उसके अन्दर गर्व और सम्मान नहीं जगाता बल्कि उसका क्रमश: अवमूल्यन करता है।

Courtesy- http://3oneseven.com/










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