युवा संवाद मध्य प्रदेश का ब्लॉग

Archive for October, 2013

देखा एक ख्वाब तो …..

निसार अहमद 


Courtesy www.morningnewsindia.com 

जब से सुना था कि कहीं एक साधू ने 1000 टन सोने का सपना देख डाला है, मेरा भी मन बड़ा सपना सपना हो रहा था I और कमाल देखिये कि मैं ने भी एक महान सपना देख ही डाला I कल रात की बात है I देखता हूँ कि 2014 के आम चुनाव हो गए हैं I देश में बस अब केवल सुख और समृधी है I सब से पहली घटना तो यह घटी कि नयी सरकार बनते ही स्विस बैंक का चीफ भागता हुआ भारत आया और देश के नेताओं, पूंजीपतियों, माफियाओं के गुप्त खातों में जमा सारी राशि देश के खजाने में जमा करवा गया I इस एक छोटी सी घटना से देश में अजब ग़ज़ब का परिवर्तन आया I रुपैया जो है अब 100 डॉलर में मिलता है I पेट्रोल और डीज़ल अब 2 और 1 रुपये लीटर मिलते हैं I भूख और ग़रीबी का कहीं नाम नहीं हैं I स्वस्थ एवं पुष्ट बच्चे और बच्चियाँ चारों जानिब दिखते हैं I कुछ बच्चियों ने शौक में और अपने को आकर्षक दिखाने के लिए कम खाने का चलन चला रखा है, जिसे हमारे नेता थोड़ा मुस्कुरा कर बताते हैं
ग़रीबी तो अब अतीत की बात हो गयी है I हालत यह है कि सरकार ने ग़रीबी हटाने, रोजगार बढ़ाने, खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की सारी योजनायें बंद कर दिये हैं I बेरोज़गार कोई रहा नहीं I सो अब नरेगा – मरेगा का क्या काम I एक ऐसा कम्प्युटर युग आ गया है कि सभी बेरोज़गारों को सोश्ल नेटवर्किंग साइटों पर नए स्वप्न युग के गुणगान का काम मिला हुआ है
भारत के किसानोंने अब आत्महत्या करना बंद कर दिया है I कृषि अब अत्यंत अच्छी स्थिति में है और 10 प्रतिशत वार्षिक कि दर से वृधी कर रही है I किसानों के पास इतने पैसे हैं कि अब वो खेती में रुचि नहीं दिखाते I उन्होंने उद्योगपतियों को खुशी खुशी ऊँची दरों पर ज़मीन देना शुरू कर दिया है I खनन अब कहीं भी अवैध ढंग से नहीं होता I , बेल्लारी और गोवा में भी नहीं
चीन ही नहीं विश्व के अधिकांश देशों के बाज़ार हमारे उत्पादों से पटे पड़े हैं I हमारे उद्योगपती अब हमारे ही नहीं विश्व के सभी देशों की आर्थिक नीतियाँ तय करते हैं
पड़ोसियों से हमारे संबंधकाफी अच्छे हैं पाकिस्तान ने भारत में शामिल होने का प्रस्ताव रखा, लेकिन भारत सरकार ने उसे एक आधा चपत लगा कर आगे अपने पाजामे में रहने की हिदायत दी है I  ज़ाहिर है जिसे उसने मान लिया है आतंकियों ने अब विश्व के अन्य कोनों में छिपने की जगह तलाशी है, जिनपर हमारी खुफिया एजेंसियां यहीं से नज़र रखती हैं I सीमा पर अब गोलियाँ नहीं चलतीं और केवल देशभक्ति के गीत बजते हैं I चीन वालों ने खबर भिजवाया है कि वो किसी भी लाइन को सीमा रेखा मान लेंगे बस भारत सरकार उनके झियांग, या जो भी नाम हो, प्रांत के लोगों को नत्थी वीसा न दे I  बांग्लादेशी भी अपनी फटी चादर में सिमट गये हैं
भ्रष्टाचार नाम की एक बीमारी पहले इस देश में पायी जाती थी I लेकिन अब आप किसी भी सरकारी दफ़्तर में जाइये आपको लगेगा कि स्वप्न लोक (अरे सपना ही तो है) में आ गए हैं I सारे काम समय पर बिना घूस लिए हो रहे हैं I रेल गाडियाँ समय पर चलती हैं, टिकट हमेशा उपलब्ध रहता है, और आईआरसीटीसी वैबसाइट पर कोई भी कभी भी कहीं भी टिकिट बूक करवा सकता है I रेल गाड़ी के कर्मचारी घूस न माँगते हैं न लेते हैं I वैसे रेल गाडियाँ अमूमन खाली ही रहती हैं I सब के पास नॅनो नाम की कार है और पेट्रोल हद से ज़्यादा सस्ती है I पुलिस वाले हर महिला को माता या बहन ही कहते हैं I और अब किसी लड़की या महिला को किसी बलात्कारी को भैया कहने की आवश्यकता नहीं रही क्यों कि अब हम भारत में हैं, इंडिया में नहीं और यहाँ बलात्कार होते ही नहीं
वातावरण सदा चन्दन व फूलों से सुगन्धित रहता है I गाड़ियों से हो रहे वायु प्रदूषण को चन्दन जलाकर समाप्त किया जाता है I कानफोडु लाउड स्पीकरों से अब सदा गीता, रामायण के मधुर पाठ होते हैं I जितने स्थानों पर भक्तों ने अपने भगवनों के जन्म, मृत्यु, विवाह, या किसी भी घटना के स्वप्न देखे थे, सब जगह उनके मंदिर प्रतिष्ठित हैं I
कानून व्यसथा ऐसी कि 1984 के सिख विरोधी दंगों से लेकर भागलपुर से मुजजफरनगर तक हर दंगे के दोषियों को सज़ा हो रही है I आतंकवादी घटनाओं के सारे मामले सुलझा लिए गए हैं और सभी मास्टरमाइंड पकड़े जा चुके हैं I सारे माड्यूल ध्वस्त किए जा चुके हैं I माओवादियों ने समर्पण कर दिया है I उत्तर पूर्व के राज्यों ने महान भारतीय संस्कृति और इस महान भारतीय राष्ट्र का आभार व्यक्त किया है I
सबसे मजेदार बात तो यह हो गयी है कि राजनीति में अब कोई अपराधी नहीं रहा I संसद और विधान सभाओं कि कार्यवाही अब कभी ठप नहीं होती क्यों कि विपक्षी दलों के पास कोई मुद्दा नहीं है यह शायद फिर विपक्षी दल ही नहीं रहे ज़ाहिर है अन्ना और केजरीवाल बेरोज़गार बैठे हैं I दुकान तो सूचना से लगाकर हर चीज़ का अधिकार माँगने वाली एनजीओ लोगों की भी बंद हो गयी है I अब जब देश में कोई समस्या ही नहीं रही तो लोग अधिकार किसका माँगें I
नींद खुलने से पहले टीवी पर समाचार आ रहा था कि अमेरिका के राष्ट्रपति ने हमारे प्रधानमंत्री जी, जिन्हें देश कि जनता प्यार से नमो कहती है, से मिलने का समय माँगा है जिस पर प्रधानमंत्री कार्यालय विचार कर रहा है

Courtesy– www.deccanchronicle.com 

फिल्म- "शाहिद को देखा जाना बेहद जरुरी है"

संदीप नाईक

शाहिद” (हंसल मेहता द्वारा निर्देशित) सिर्फ एक फिल्म नहीं वरन हमारे सात दशकों की वो कहानी है जो आज भी टीस बनकर नासूर के रूप में मौजूद है, शर्मनाक यह है कि इसे एक फिल्म के रूप में बनाकर परोसना पड़ रहा है और हाल में सिर्फ चन्द लोग बातें करते हुए देख रहे है इस फिल्म को. असल में जो केके मेनन इस फिल्म में जेल की सीखंचों के भीतर रहते हुए कहते है ना कि “उसे मालूम नहीं कि काबुल में घोडें नहीं होते, वह चालाक है, उसने सारे गधों को इकठ्ठा करके खुद घोड़ा बना बैठा हैयह सिर्फ एक डायलाग नहीं वरन हमारे लोकतंत्र पर एक करारा तमाचा भी है, क्योकि ऐसे चालाक लोग हमारे आसपास मौजूद है जो सिर्फ अपने मकसद के लिए और बाजारीकरण के इस कमाऊ दौर में बुद्धिमानों को भी गधा समझ कर इस्तेमाल कर रहे है, और अकूत संपत्ति बना रहे है और अपनी राजनैतिक ताकत भी. यह फिल्म जिस मुम्बई के दंगों के साथ शुरू होकर स्व शाहिद आजमी के सम्पूर्ण कार्यों को दर्शाती है वह प्रशंसनीय है शाहिद के जेल के अनुभवों को बार बार अंत तक कोर्ट में तक सरेआम जलील किया जाता है यह दिखाता है कि गंगा- जमानी तहजीब वाले इस देश में कैसे एक इंसान को सिर्फ शाहिद, फहीम या जहीर होने से अपनी जिन्दगी दांव पर लगाना पड़ती है. यह फिल्म हमारी सुस्त और सांप की तरह रेंगने वाली कछुआ न्याय व्यवस्था पर भी गहरे कटाक्ष करती है परन्तु इस सबके बावजूद भी हालात सुधर कहाँ रहे है. शाहिद को अपनी जान देना पडी परन्तु हुआ क्या? संकीर्ण समाज में जहां एक इंसान को धर्म, जाति और रूपयों की कसौटी पर परखा जाता है और लगातार उसे यह एहसास हर कदम पर दिलाया जाता है तो निश्चित ही यह किसी भी विकसित समाज की निशानी तो कतई नहीं है. 
दूसरा पहलू है मुस्लिम समाज की अपनी समस्याएं. बंद और तंग गलियों में शिक्षा के प्रकाश से दूर किन्ही अंधेरों में पलता जीवन स्वास्थ्य और मूल सुविधाओं से वंचित ज़िंदगी जीने को अभिशप्त ये समाज भी क्यों नहीं समझता कि इल्म वह ताकत है जो इन्हें अर्थ शास्त्र से जोड़ेगी, दुर्भाग्य से वोट बैंक की चपेट में और अपढ़ मुल्लों के वर्चस्व के बीच ये कौम धीरे धीरे पिछड़ती चली गयी, बावजूद इसके कि देश में जामिया से लेकर तमाम तरह के मदरसों के लिए सरकारों ने “रहमकरके शिक्षा देने की नौटंकी की. सच्चर समिति बनी और सरकार ने आखिर अल्प संखयक कहकर देश के बड़े समाज का भद्दा मजाक बना रखा है. बहुत खूबसूरती से फिल्म भारत, पाकिस्तान और बंगलादेशी मुसलमानों के मानवीय पहलूओं और अधिकारों की बात करती है. यद्यपि यह दीगर बात है कि सउदी अरब, कुवैत, दुबई, या और बड़े बाजारों में मुसलमानों का कब्जा है और वहाँ हमारे यहाँ जामिया, अलीगढ़ या मेरठ याकि लखनऊ से मुस्लिम विवि से पढ़े शिक्षक इल्म बाँट रहे है और कमा रहे है. फिल्म में शाहिद भी ऐसी ही किसी संस्था से जकात के रूपये लेकर मुकदमा लड़ता है और बार-बार उसका इस तरह की संस्था से मिलने के दृश्य है जो दर्शाता है कि इस तरह की संस्थाओं के पास पर्याप्त रूपया है पर ये संस्थाएं इन्ही जामबाज मुस्लिम युवाओं को सुरक्षा देने में समर्थ नहीं है सिर्फ राजनीती कर सकती है या चिन्ता कर सकती है. हो सकता है हंसल मेहता और समीर गौतम सिंह की मंशा भले यह दर्शाने में ना रही हो परन्तु वे इंगित जरुर करना चाहते थे इसलिए जहीर की जीत की खुशी के बाद शाहिद इन कौम के ठेकेदारों से मिलता है. खैर, शाहिद की व्यक्तिगत जिन्दगी में तनाव और जिस बेरुखी का चित्रण है वह थोड़ा अवास्तविक लगता है या परिवार द्वारा उसकी पत्नी को स्वीकारने और फिर अलग होने की बात है वह भी थोड़ा अव्यवहारिक लगता है. 
पुरी फिल्म में कोर्ट के सीन बहुत वास्तविक है जों परम्परागत मुम्बईया फ़िल्मी लटकों- झटकों या भव्य कोर्ट की जिरह ना होकर बेहद वास्तविक है परन्तु जिस स्टाईल में सरकारी वकील और शाहिद के बहस के दृश्य है वह थोड़ा चिंतित इसलिए करता है कि यदि इस तरह के मुकदमों में जज साहब अपने टेबल के पास बुलाकर बात करते है तो “डीलिंग” की सम्भावना बने रहने का खतरा बना रहता है जों हमने “मोहन जोशी हाजिर हो” या “एक रुका हुआ फैसला” में देखा समझा है. पुरी फिल्म में कैमरा मुम्बई की उन संकरी गलियों, चालों, बजबजाते हुए माहौल में घूमता है जो मुस्लिम जीवन की वास्तविकता को दिखाता है और जिसकी वजह से जीवन बहुत खतरे में हो जाता है और अक्सर सरकारों या क़ानून या हिन्दू फासीवादियों के निशाने पर रहता है. 
मेरे पास बैठे सज्जन ने एक प्रचलित कमेन्ट किया था कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता पर हर आतंकवादी मुसलमान क्यों होता है. इधर हाल में यह धारणा भी टूटी है शायद इस पर भी हंसल मेहता राजकुमार उर्फ़ शाहिद से कहलवातें तो यह भ्रम भी दूर हो जाता क्योकि जब वे 9/11 की बात कर रहे है तो उस समय तक हिन्दू आतंकवाद भी न्याय पालिका में अपनी पहचान बना चुका था, इसे अगर वे धीरे से हलके में ही सही, उठाते तो शायद देश की संवेदनशील पीढी को एक सार्थक और सकारात्मक सन्देश दे पातें और कम से कम यह धारणा, जो जबरन फैलाई गयी है कि हर आतंकवादी मुसलमान होता है, को तोड़ पाते. बहरहाल फिल्म बहुत ताकतवर है, बॉस जैसी फ़िल्में भी इसके मुकाबले में है पर मेरा पक्का मानना है कि भले ही इसे दर्शक कम मिल रहे है और यह ग्यारह करोड़ का बिजिनेस ना दें पायें पर आने वाले दस बरसों में जब हिन्दी फिल्म इतिहास लिखा जाएगा तो बॉस को जगह शायद ना मिलें पर शाहिद का नाम और वर्णन सुनहरें हर्फों में लिखा जाएगा, मेरा सुझाव है की इसे जरुर देखे एक मुकम्मल समझ और सोच बनाने में यह फिल्म कामयाब है.

पश्चिम के मित्र हैं ये जेहादी आतंकवादी

शम्सुल इस्लाम


पिछले दिनों दुनिया के दो अलग और दूरदराज के हिस्सों, नैरोबी (अफ्रीका) और पेशावर (पाकिस्तान) में निर्दोष लोगों का भयानक रक्तपात हुआ। दोनों ही जनसंहारों में अपराधियों का संबंध अल-कायदा और तालिबान से बताया जा रहा है, जो हत्यारों ने स्वीकारा भी है। वे सच्चे इस्लामका प्रतिनिधित्व करने और पश्चिम व उसके सहयोगियों द्वारा मुसलमानों पर ढाए गए जुल्मों का बदलालेने के लिए जिहाद करने का दावा करते हैं।

पाकिस्तान का पेशावर एक ऐतिहासिक शहर है, जहां भारतीय उपमहाद्वीप के सभी चर्चों में से एक निहायत खूबसूरत और प्राचीनतम चर्च स्थित है। पेशावर के कोहाटी गेट की चारदीवारी के अंदर १८८३ में निर्मित यह ऑल सेंट्स एंग्लिकन चर्च’, चर्च ऑफ पाकिस्तान का अंग है। मीनारों और गुंबदों के साए में बना यह चर्च ईसाइयों का एक अनोखा उपासनाघर है, जहां मुगल व ब्रिटिश वास्तुकला का संगम साफ तौर पर दिखता है। २२ सितंबर को जब सैकड़ों भक्त प्रार्थना करने के बाद चर्च से बाहर आ रहे थे, तब दो आत्मघाती हमलावरों ने अपने शरीर पर बंधे बमों का विस्फोट कर दिया। इस विस्फोट में ७ बच्चों व ३७ महिलाओं समेत लगभग ८० से ज्यादा धार्मिकजन दर्शक घटनास्थल पर ही मारे गए, जबकि १५० से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हो गए। मरने वालों की संख्या १०० से ज्यादा तक हो सकती है।

एक बार पाकिस्तानी सेना द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त व तालिबान से संबद्ध एक आतंकी संगठन जनदुल्लाह (अल्लाह के सैनिक) ने इस आत्मघाती हमले की जिम्मेदारी ली है। जनदुल्लाह के प्रवक्ता अहमद मरवात ने कहा कि उनके संगठन ने पेशावर चर्च पर आत्मघाती हमले किए और विदेशियों व गैर-मुस्लिमों पर तब तक अपने हमले जारी रखे जाए तो जब तक कि ड्रोन हमले नहीं रुक जाते।

याद रहे ड्रोन ऐसे चालक रहित विमान हैं, जिनका प्रयोग अमेरिका द्वारा पाकिस्तानी क्षेत्र में कई तालिबानी कमांडरों को मारने के लिए किया गया है लेकिन इन हमलों में बड़ी तादाद में औरतों, बच्चों और पुरुषों की भी जानें गई हैं।

मीडिया में छपी खबरों के मुताबिक इस हमले के तुरंत बाद बड़ी संख्या में हताहतों के रिश्तेदार व मित्र चर्च के बाहर एकत्रित हो गए और उन्होंने देश में आतंकी हमलों को न रोक पाने के लिए पाक सरकार की कटु आलोचना की। पाकिस्तान के लगभग सभी बड़े शहरों में ईसाइयों के साथ-साथ अन्य नागरिकों द्वारा विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए, जिनमें हजारों लोगों ने हिस्सा लिया।

अफ्रीका के प्रमुख देश, कीनिया की राजधानी और देश के सबसे बड़े शहर नैरोबी में अल-कायदा से संबद्ध सोमालिया के एक जिहादी संगठन अल-शबाबने हमला किया। शनिवार, २१ सितंबर, २०१३ को दोपहर बाद हथियारों से लैस हमलावरों का एक समूह, यहां के एक प्रमुख शॉपिंग मॉल में दाखिल हुआ और उसने ग्रेनेड्स से हमले किए व स्वचालित हथियारों से फायरिंग की।

इस जनसंहार में ९० से अधिक इंसान मारे गए और लगभग २०० लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। एक दुखद पहलू यह है कि जिस समय मॉल पर यह हमला हुआ वहां बच्चों पर आधारित एक कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा था और अंदेशा है कि बच्चों के हताहत होने की संख्या में बढ़ोतरी हो सकती है। हमले में मारे गए केवल कीनियाई नागरिक नहीं थे। भारतीय, फ्रेंच, डच, दक्षिणी अफ्रीकी, ऑस्ट्रेलियन, ब्रिटिश और कनाडियाई नागरिकों ने भी अपनी जिंदगियां खोईं। निरपराध बच्चों, पुरुषों व महिलाओं के रक्त बहाने का खूनी खेल पिछले मंगलवार तक जारी था।

सुप्रसिद्ध घानाई कवि कोफी अवूनर भी, जो एक साहित्यिक आयोजन में नैरोबी आए हुए थे और उस समय मॉल में मौजूद थे, इस आतंकी हमले का शिकार हुए। वह नस्लवाद के खिलाफ एक मजबूत और प्रभावशाली आवाज थे। मीडिया में छपी रिपोर्टों के मुताबिक अल शबाबने अपने इस भीषण जनसंहार का यह कहकर बचाव किया कि यह सोमालिया में मुसलमानों के खिलाफ कीनियाई सेना की कार्रवाइयों के विरोध में किया गया है।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपनी संवेदना प्रकट करते हुए हमलावर अपराधियों पर केन्या के प्रयासों के लिए अमेरिका के समर्थन का वादा किया। इन बयानों का स्वागत है लेकिन इन दोनों नेताओं से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या यह सत्य नहीं है कि पश्चिम के शासकों ने ही तालिबान और अल कायदा जैसे संगठनों को पैदा किया और पाला-पोसा। १९८० के दशक में इस्लामी दुनिया में पश्चिमी शोषण और वर्चस्व के खिलाफ बढ़ती धर्मनिरपेक्ष चुनौतियों को विफल करने के लिए इन संगठनों को खाड़ा और विकसित किया गया, ताकि इस्लाम का नारा बुलंद करके वहां चल रहे धर्मनिरपेक्ष आंदोलनों को विफल किया जाए। पश्चिमी खुफिया एजेंसियों ने अपने सामरिक हितों के लिए ही इस्लामिक संसारमें समाजवादी और राष्ट्रवादी आंदोलनों का मुकाबला करने के लिए जिहादी इस्लाम को पैदा किया और उसे पाला-पोसा। यदि डेविड कैमरून और बराक ओबामा के पूर्ववर्तियों ने इनको न पैदा किया होता तो आज दुनिया बहुत बेहतर जगह होती। ऐसा नहीं है कि पश्चिमी शासकों का यह कुत्सित खेल अब खत्म हो गया हो।

पश्चिमी देशों की जंगबाज नीतियों के एक बड़े विश्लेषक वल्र्ड अलेक्स लांतेयर ने लिखा है कि अमेरिका और फ्रांस के नेतृत्व में आज भी सीरियाई सरकार के खिलाफ अलकायदा से जुड़े विद्रोहियों को बड़े पैमाने पर फौजी सहायता उपलब्ध कराई जा रही है। इससे साफ पता चलता है कि पश्चिमी देश एक शर्मनाक खेल खेल रहे हैं। अफगानिस्तान व अफ्रीका में वे अलकायदा को आतंकवाद का सबसे बड़ा सरगना बताते हैं, जबकि पश्चिमी एशिया में इससे जुड़े संगठनों को हमलावर होने में हर तरह की सहायता पहुंचा रहे हैं।

हालांकि इस अमानवीय और संदिग्ध पितृत्वके बावजूद जनदुल्लाहऔर अल शबाबके अपराधियों को मानवता के खिलाफ उनके अपराधों के दोष से बरी नहीं किया जा सकता। अपराधियों के ये गैंग यह कहकर अपने कार्यों का बचाव करते हैं कि वे ईसाई-गैर-मुस्लिम शत्रुओं से इस्लाम और मुसलमानों को बचाने के लिएऐसा कर रहे हैं। उनकी शिकायत यह है कि आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर पश्चिम सभी मुसलमानों को निशाना बना रहा है और देखिए कि इस्लाम के ये स्वयंभू अभिभावक क्या कर रहे हैं? वे उन निर्दोष लोगों को जो किसी भी धर्म या रंग के शासकों से कोई वास्ता नहीं रखते, मार रहे हैं और उन्हें विकलांग बना रहे हैं। इस प्रकार पश्चिमी आतताइयों और इन अपराधियों दोनों के बीच कोई अंतर नहीं है।

वे सिर्फ गैर-मुस्लिमों का सफाया करना चाहते हैं। यह विश्वास करना कितना मूर्खतापूर्ण है कि बम और गोलियां शिकार करने से पहले पीड़ित से उसके धर्म की जांच करती होंगी। ये अपराधी इस सच्चाई को भूल जाते हैं कि इस धरती पर लगभग सभी जगह विभिन्न धर्मों के लोग साथ रहते और काम करते हैं। पेशावर और नैरोबी दोनों जगह उन्होंने कई मुसलमानों को भी मौत के घाट उतारा है।

और यह अपराधी नैरोबी में प्रसिद्ध नास्तिक कवि कोफी अवनूर की हत्या को कैसे न्यायोचित ठहरा सकते हैं? वे तो किसी ईसाई खुदा या अन्य ईश्वर में विश्वास नहीं रखते थे। सत्य यह है कि उन्होंने हत्या करने के लिए आसान लक्ष्य अर्थात आम इंसानों को चुना। धर्म के ये ठेकेदार पश्चिमी देशों के शासकों का तो कुछ नहीं बिगाड़ सकते लेकिन बेसहारा और साधारण मासूम लोगों को मौत के घाट उतार सकते हैं। अपनी ऐसी कार्रवाइयों से यह आतंकवादी, पश्चिम की दादागीरी को कमजोर नहीं करते हैं, बल्कि पश्चिम को और क्रूर बनने में ही मदद करते हैं, जिसकी बड़ी कीमत इन देशों के आम नागरिकों को चुकानी पड़ती है।

इन आतंकवादियों का मानना है कि लड़ाई मुसलमानों और अन्य लोगों के बीच है। अमेरिका के प्रसिद्ध दार्शनिक और यहूदी परिवार में जन्मे नोम चोमस्की और उनके जैसे लाखों अन्य लोग (जो मुसलमान नहीं हैं) के बारे में क्या-क्या माना जाएगा, जिन्होंने पश्चिम की आपराधिक नीतियों और जंगबाजी का विरोध करने में जीवन बिताया है? और सऊदी अरब, जॉर्डन, तुर्की इत्यादि के मुस्लिम शासकों के विषय में क्या राय है, जिन्होंने पीढ़ी-दर-पीढ़ी को पश्चिम के प्यादों के तौर पर काम किया है। पश्चिमी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए सभी पीड़ित लोगों की एकता की आवश्यकता है। नासमझ धार्मिक हिंसा में लिप्त ये जेहादी आतंकवादी केवल लोगों को बांट रहे हैं। वे पश्चिम के सर्वोत्तम मित्र हैं। जेहादी आतंकवादियों के लिए यह समझना मुश्किल है कि मानव सभ्यता की शुरुआत इस्लाम के आगमन के साथ नहीं हुई। यह लाखों सालों के विकास का परिणाम है। संघर्ष हुए लेकिन संगम भी बने और इस्लाम भी बहुत से धर्मों व संस्कृतियों के मिलन से अस्तित्व में आया। इसके अलावा कोई भी धर्म यह दावा नहीं कर सकता कि उसके अनुयायी एक ही तरह से दिखते-सोचते और व्यवहार करते हैं। इस्लाम बनाम अन्य सब अथवा इसी तरह का किसी भी अन्य धर्म का आह्वान फासिस्टों के द्वारा प्रचारित एक नारा ही हो सकता है, जो धोखे के अलावा कुछ भी नहीं है। मानव समाज की जटिलता को समझने के लिए इस तरह की सोच रखने वाले तत्वों को उनके भगवान कुछ सामान्य समझ भी प्रदान कर सकें तो कितना अच्छा होगा!

आम लोगों के खिलाफ धार्मिक हिंसा की इस मौजूदा बाढ़ ने एक बार फिर पाकिस्तान में फैसलाबाद झांग के बिशप डॉ. जॉन जोसेफ की भविष्यवाणी की याद दिला दी है, जिन्होंने पाकिस्तान में ईसाइयों पर बढ़ते अत्याचारों के खिलाफ विरोध करते हुए अपनी जान दी थी। पाकिस्तान के साहीवाल (मांटगुमरी) शहर में ईश-निंदा कानून के खिलाफ एक विरोध मार्च का नेतृत्व करते हुए उन्होंने, 6 मई, १९९८ को खुद को गोली मार कर मौत को गले लगाया था। इस्लाम के नाम पर कट्टरता के नंगे नाच के खिलाफ अपने जीवन के बलिदान से छह दिन पहले बिशप जॉन जोसेफ ने अपने दुनिया भर के दोस्तों को एक खुला पत्र लिखा था कि धार्मिक कट्टरता शासकों द्वारा पैदा की जाती है और पाली-पोसी जाती है लेकिन जब एक बार स्थापित हो जाती है तो यह किसी के नियंत्रण में नहीं रहती लेकिन इसकी भारी कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ती है।

उन्होंने चेतावनी दी थी कि हमें यह भरोसा नहीं करना चाहिए कि रक्त की प्यासी धार्मिक हिंसा का स्वत: अंत हो जाएगा या वे शासक जिन्होंने इसे पैदा किया और हवा दी, वे इसका अंत कर सकते हैं। उन्होंने आह्वान किया था कि हम में से हर एक को इसमें (धार्मिक कट्टरता को समाप्त करने के अभियान में) शामिल होना होगा और अपनी भूमिका सक्रिय अदा करनी होगी। बदकिस्मती से हमने डॉ. जॉन जोसेफ जैसे लोगों की कुर्बानी से कोई सबक नहीं सीखा है।

http://shukrawar.net/ से साभार 

Tag Cloud