युवा संवाद मध्य प्रदेश का ब्लॉग

Archive for September 2, 2013

ठहर जाना एक जुम्बिश का


अंधश्रध्दा के खिलाफ संघर्षरत एक संग्रामी की मौत

सुभाष गाताड़े
पुणे के निवासियों के एक बड़े हिस्से के लिए मुला मुठा नदी के किनारे बना ओंकारेश्वर मंदिर वह जगह हुआ करती रही है जहां लोग अपने अन्तिम संस्कार के लिए ले लाए जाते रहे हैं। इसे विचित्र संयोग कहा जाएगा कि उसी मन्दिर के ऊपर बने पूल से अल सुबह गुजरते हुए डा नरेन्द्र दाभोलकर ने अपनी झंझावाती जिन्दगी की चन्द आखरी सांसें लीं। एक जुम्बिश ठहर गयी, एक जुस्तजू अधबीच थम गयी।

मोटरसाइकिल पर सवार हत्यारे नौजवानों द्वारा दागी गयी चार गोलियों में से दो उनके सिर के पिछले हिस्से में लगी थी और वह वहीं खून से लथपथ गिर गए थे। मोटरसाइकिल थोड़ी दूर खड़ी कर दोनों हत्यारे वहां से भाग निकले थे। उन्हें शहर के मशहूर ससून अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित किया।

 एक बहुआयामी व्यक्ति – प्रशिक्षण से डाक्टरी चिकित्सक, अपनी रूचि के हिसाब से देखें तो लेखक-सम्पादक एवं वक्ता और एक आवश्यकता की वजह से एक आन्दोलनकारी,यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पूरे मुल्क के तर्कशील आन्दोलन के लिए वह एक अद्भुत मिसाल थे और अपने संगठन एवं उसकी 200से अधिक शाखाओं के जरिए सूबा महाराष्ट्र,कर्नाटक एवं गोवा में जनजागृति के काम में लगे थे। बहुत कम लोग जानते थे कि अपने स्कूल-कालेज के दिनों में वह जानेमाने कब्बडी के खिलाड़ी थे,जिन्होंने भारतीय टीम के लिए मेडल भी जीते थे। हालांकि उन्होंने अपने सामाजिक जीवन की शुरूआत डाक्टरी प्रैक्टिस से की थी,मगर जल्द ही वह डा बाबा आढाव द्वारा संचालित एक गांव, एक जलाशय (पाणवठा)नामक मुहिम से जुड़ गए थे। विगत दो दशक से अधिक समय से वह अंधाश्रध्दा के खिलाफ मुहिम में मुब्तिला थे।

 डा दाभोलकर की प्रचण्ड लोकप्रियता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके मौत की ख़बर सुनते ही महाराष्ट्र के तमाम हिस्सों में स्वत:स्फूर्त प्रदर्शन हुए,और उनके गृहनगर सातारा में तो जुलूस में शामिल हजारों की तादाद ने जिन्दगी के सत्तरवें बसन्त की तरफ बढ़ रहे अपने नगर के इस प्रिय एवं सम्मानित व्यक्ति को अपनी आदरांजलि दे दी। 21 अगस्त को पुणे शहर में सभी पार्टियों के संयुक्त आवाहन पर बन्द का आयोजन किया गया।

अभी एक दिन पहले शाम के वक्त मराठी भाषा के सहयाद्री टीवी चैनल पर उपस्थित होकर वह जातिपंचायतों की भूमिका पर अपनी राय प्रगट कर रहे थे। उस वक्त किसे यह गुमान हो सकता था कि उन्हें सजीवअर्थात लाइव सुनने का यह आखरी अवसर होनेवाला है। यह पैनल चर्चा नासिक जिले की एक विचलित करनेवाली घटना की पृष्ठभूमि में आयोजित की गयी थी, जहां किसी कुम्हारकर नामक व्यक्ति द्वारा अपनी जाति पंचायत के आदेश पर अपनी बेटी का गला घोंटने की घटना सामने आयी थी। वजह थी उसका अपनी जाति से बाहर जाकर किसी युवक से प्रेमविवाह। चर्चा में हिस्सेदारी करते हुए डा दाभोलकर बता रहे थे कि किस तरह उन्होंने हाल के दिनों में अन्तरजातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए सम्मेलन का आयोजन किया था और इसी मसले पर घोषणापत्र भी तैयार किया था।

अपने एक आलेख रैशनेलिटी मिशन फार सक्सेस इन लाइफमें जिसमें उनका मकसद आवश्यक बदलाव के लिए लोगों को प्रेरित करना हैउन्होंने लिखा था : परम्पराओं, रस्मोरिवाज और मन को विस्मित कर देनेवाली प्रक्रियाओं से बनी युगों पुरानी अंधश्रध्दाओं की पूर्ति के लिए पैसा, श्रम और व्यक्ति एवं समाज का समय भी लगता है। आधुनिक समाज ऐसे मूल्यवान संसाधनों को बरबाद नहीं कर सकता। दरअसल अंधश्रध्दाएं इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि गरीब एवं वंचित लोग अपने हालात में यथावत बने रहें और उन्हें अपने विपन्न करनेवाले हालात से बाहर आने का मौका तक न मिले। आइए हम प्रतिज्ञा लें कि हम ऐसी किसी अंधाश्रध्दा को स्थान नहीं देगें और अपने बहुमूल्य संसाधनों को बरबाद नहीं करेंगे। उत्सवों पर करदाताओं का पैसा बरबाद करनेवाली,कुंभमेला से लेकर मंदिरों/मस्जिदों/गिरजाघरों के रखरखाव के लिए पैसा व्यय करनेवाली सरकारों का हम विरोधा करेंगे और यह मांग करेंगे कि पानी,उर्जा,कम्युनिकेशन,यातायात, स्वास्थ्यसेवा,प्रायमरी शिक्षा और अन्य कल्याणकारी एवं विकाससम्बन्धी गतिविधियों के लिए वह इस फण्ड का आवण्टन करें”।

 राजनेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं तक सभी ने डॉक्टर दाभोलकर को अपनी श्रध्दांजलि अर्पित की है। नि:स्सन्देह वह एक सुनियोजित हत्या थी और जिसके पीछे एक सुचिंतित साजिश की बू आती है। असली हत्यारों को पकड़ने के लिए पुलिस ने आठ टीमों का गठन किया है और उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्हें इस मसले में सफलता मिलेगी। पुलिस ने कहा कि वह इन आरोपों की भी पड़ताल करेगी कि इसके पीछे सनातन संस्था और हिन्दू जनजागृति समिति जैसी अतिवादी संस्थाओं का हाथ तो नहीं है। उनके परिवार के सदस्यों के मुताबिक उन्हें अक्सर धमकियां मिलती थीं,लेकिन उन्होंने पुलिस सुरक्षा लेने से हमेशा इन्कार किया। उनके बेटे हामिद ने कहा कि वे कहते थे कि उनका संघर्ष अज्ञान की समाप्ति के लिए है और उससे लड़ने के लिए उन्हें हथियारों की जरूरत नहीं है।उनके भाई ने अश्रुपूरित नयनों से बताया कि जब हम लोग उनसे पुलिस सुरक्षा लेने का आग्रह करते थे,तो वह कहते थे कि अगर मैंने सुरक्षा ली तो वे लोग मेरे साथियों पर हमला करेंगे। और यह मैं कभी बरदाश्त नहीं कर सकता। जो होना है मेरे साथ हो।

आखिर किसने ऐसे शख्स की हत्या की होगी जिसने महाराष्ट्र की समाजसुधारकों की – ज्योतिबा फुले, महादेव गोविन्द रानडे या गोपाल हरि आगरकर – विस्मृत हो चली परम्परा को नवजीवन देने की कोशिश की थी ?

कई सारी सम्भावनाएं हैं। यह सही है कि उनके कोई निजी दुश्मन नहीं थे मगर अंधाश्रध्दा के खिलाफ उनके अनवरत संघर्ष ने ऐसे तमाम लोगों को उनके खिलाफ खड़ा किया था, जिनको उन्होंने बेपर्द किया था। तयशुदा बात है कि ऐसे लोग कारस्तानियों में लगे होंगे। राजनीति में सक्रिय यथास्थितिवादी शक्तियों के लिए भी उनके काम से परेशानी थी। उन्हें किस हद तक विरोध का सामना करना पड़ता था इस बात का अन्दाज़ा इस तरह लगाया जा सकता है कि विगत अठारह साल से महाराष्ट्र विधानसभा के सामने एक बिल लम्बित पड़ा रहा है जिसका फोकस जादूटोना करनेवाले या काला जादू करनेवाली ताकतों पर रोक लगाना है। महाराष्ट्र प्रीवेन्शन एण्ड इरेडिकेशन आफ हयूमन सैक्रिफाइस एण्ड अदर इनहयूमन इविल प्रैक्टिसेस एण्ड ब्लैक मैजिकशीर्षक इस बिल का हिन्दु अतिवादी संगठनों ने लगातार विरोध किया है,पिछले दो साल से वारकरी समुदाय के लोगों ने भी विरोध के सुर में सुर मिलाया है। और इन्हीं का हवाला देते हुए इस अन्तराल में सूबे में सत्तासीन सरकारों ने इस बिल को पारित नहीं होने दिया है। आप इसे डा दाभोलकर की हत्या से उपजे जनाक्रोश का नतीजा कह सकते हैं या सरकार द्वारा अपनी झेंप मिटाने के लिए की गयी कार्रवाई कह सकते हैं कि कि इस दुखद घटना के महज एक दिन बाद महाराष्ट्र सरकार के कैबिनेट में इस बिल को लेकर एक अध्यादेश लाने का निर्णय लिया गया है।

रूढिवादी हिस्से के विरोध को देखते हुए इस बिल में आस्था क्या है या अंधआस्था किसे कहेंगे इसको परिभाषित करने से बचा गया था और सूबे में व्यापक पैमाने पर व्यवहार में रहनेवाली अंधश्रध्दाओं को निशाने पर रखा गया था, फिर वह अलौकिक शक्ति के नाम पर चमत्कार दिखाने, भभूत, ताबीज प्रगट कराने ; भूत भगाने के नाम पर तरह तरह की यातनादायी हरकतों को पीड़ितों पर अंजाम देने, काला जादू करके समाज में भय के वातावरण का निर्माण करने जैसी तमाम बातें शामिल थीं। ऐसी गतिविधियां संज्ञेय एवं गैरजमानती अपराधा के तौर पर दर्ज हों, ऐसे अपराधों की जांच के लिए या उन पर निगरानी रखने के लिए जांच अधिकारी नियुक्त करने की बात भी इसमें की गयी थी।

  उनके जीवन की एक अन्य कम उल्लेखित उपलब्धिा रही है, विगत अठारह साल से उन्होंने किया साधनानामक साप्ताहिक का सम्पादन, जिसने अपनी स्थापना के 65 साल हाल ही में पूरे किए। जानकार बताते हैं कि जब उन्होंने सम्पादक का जिम्म सम्भाला तो सानेगुरूजी जैसे स्वतंत्रता सेनानी एवं समाजसुधारक द्वारा स्थापित यह पत्रिका काफी कठिन दौर से गुजर रही थी, मगर उनके सम्पादन ने इस परिदृश्य को बदल दिया और आज भी यह पत्रिाका तमाम परिवर्तनकामी ताकतों के विचारों के लिए मंच प्रदान करती है।

ठीक ही कहा गया है कि डा दाभोलकर की असामयिक मौत देश के तर्कवादी आन्दोलन के लिए गहरा झटका है। देश में दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के चलते पहले से ही तमाम चुनौतियों का सामना कर रहे इस आन्दोलन ने अपने एक सेनानी को खोया है। मगर अतिवादी ताकतों के हाथ उनकी मौत दरअसल उन सभी के लिए एक झटका कही जा सकती है जो देश में एक प्रगतिशील बदलाव लाने की उम्मीद रखते हैं। अब यह देखना होगा कि उनकी मृत्यु से उपजे प्रचण्ड दुख एवं गुस्से को ऐसी तमाम ताकतें मिल कर किस तरह एक नयी संकल्पशक्ति में तब्दील कर पाती हैं ताकि अज्ञान, अतार्किकता एवं प्रतिक्रिया की जिन ताकतों के खिलाफ लड़ने में डा दाभोलकर ने मृत्यु का वरण्ा किया, वह मशाल आगे भी जलती रहे।

“अंधश्रद्धा के खिलाफ़ संघर्ष और उसकी कीमत”

राहुल शर्मा

Courtesy- www.dnaindia.com

अलबर्ट आइन्स्टीन का मानना था कि विज्ञान का मर्म इससे ज़्यादा नहीं कि वह रोज़मर्रा की विचार प्रक्रिया को परिशुद्ध करे। लेकिन विज्ञान अपने इस मर्म को पा लेने में सफल हो पाएगा यह उम्मीद कई आशंकाओं से घिरी रहती है। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति को महाराष्ट्र में स्थापना देने वाले डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की पूना में हुई निर्मम हत्या ने इन आशंकाओं को और भी गहरा दिया है। वह पूना जो महात्मा ज्योतिबा फुले की गौरवशाली परंपरा की वाहक नगरी भी है। डॉ. दाभोलकर निश्चित ही ब्रूनो जैसे विज्ञान के शहीद की परंपरा में शामिल हो गये हैं जिन्हें सन 1600 में इटली में इसलिए जिंदा जला दिया था क्योंकि उन्होंने सूर्य को आवश्यक रूप से एक तारा माना था। ऐसा माना जाना तब की धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ़ था। 

दाभोलकर की हत्या ने जहाँ राजसत्ता के चरित्र को एक बार फिर उजागर किया है वहीं तार्किकताओं को सामाजिक स्थापना देने से सम्बंधित कई ज्वलंत प्रश्न भी हमारे समक्ष खड़े कर दिये हैं। अतार्किकताओं और अंधविश्वासों का मायाजाल हमारे मुल्क में बहुत घना है जिसको राजनैतिक, प्रशासनिक व कई बार मीडिया का भी संरक्षण प्राप्त रहता है। आसाराम और निर्मल बाबा की मूर्खताओं को तवज्जो मिलना इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। विवेकवादी डॉ दाभोलकर विगत 2 दशकों से भी ज्यादा तवील अर्से से महाराष्ट्र में अंधविश्वासों व काला जादू के खिलाफ़ ज़मीनी लड़ाई लड़ रहे थे और जिसके एवज में उन्हें सन 1983 से ही लगातार विरोध, धमकियाँ और हमले झेलना पड़ रहे थे। इस पर भी यह आलम रहा कि उन्होंने पुलिस की सुरक्षा लेने से साफ़ इन्कार कर दिया था। हाल ही में एक दक्षिणपंथी संगठन “सनातन संस्था” ने मुंबई के आज़ाद मैदान से उन्हें धमकाते हुए कहा था कि यदि उन्होंने अपनी तार्किकता उपजाने की गतिविधियों पर लगाम नहीं लगाई तो उनका भी वही हश्र होगा जो महात्मा गाँधी का हुआ था। डॉ. दाभोलकर विगत कई वर्षों से जन संघर्ष चला महाराष्ट्र सरकार पर दबाव बना रहे थे कि वो अंधश्रद्धा और काला जादू को प्रदेश में पूरी तरह प्रतिबंधित करने के लिए क़ानून बनाये। इस आशय का बिल महाराष्ट्र सरकार ने कैबिनेट से पास भी करा उसे केंद्र सरकार को भेज दिया है लेकिन विगत 14 वर्षों में भी यह क़ानून का रूप नहीं ले सका है। डॉ. दाभोलकर की हत्या के खिलाफ़ उभरे जन आक्रोश के चलते आनन-फ़ानन में महाराष्ट्र सरकार ने अंधश्रद्धा व कालाजादू निर्मूलन क़ानून का अध्यादेश तो पारित कर दिया लेकिन इसको सफलतापूर्वक ये सरकार राज्यभर में क्रियान्वित कर पाएगी इसमें संदेह रहना लाजिमी है क्योंकि महाराष्ट्र में बी. जे. पी.-शिवसेना के साथ साथ कांग्रेस के ही कई नेता इस बिल को क़ानून बनाये जाकर लागू कराने के पक्ष में आज भी नहीं हैं।

वैज्ञानिक चेतना के विकास की राह में अड़ंगे झेलने वाले डॉ. दाभोलकर अकेले योद्धा रहे हों ऐसा भी नहीं। 2011 में केरल के युक्तिवेदी संघम के अध्यक्ष यू. कलानाथन पर भी हमला किया गया था क्योंकि उन्होंने पद्मनाभ स्वामी मंदिर में निकली अकूत दौलत को जनहित में उपयोग किये जाने की वकालत एक टीवी चैनल पर कर दी थी। इसी तरह सेनल इदमारुकू जो कि जाने माने तर्कवादी हैं ने 2012 में मुंबई के वेलनकन्नि चर्च में ईसा मसीह की मूर्ती की आँख से बहते आंसुओं के वैज्ञानिक कारण को सिद्ध कर दिया था तो पुलिस ने उल्टा उन्हीँ के खिलाफ धार्मिक घृणा उकसाने का मुकदमा कायम कर लिया था।

अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के माध्यम से दाभोलकर समाज में प्रचलित कई प्रकार के अंधविश्वासों जैसे ज्योतिष, पशुबलि, भूत-प्रेत बाधा, पुनर्जन्म, काला जादू, स्वयं को ईश्वर घोषित कर देना, वास्तुशास्त्र, महिलाओं को चुड़ैल या डायन घोषित कर देना, इत्यादि का विरोध उनकी वैज्ञानिक एवं तार्किक व्याख्याएं देते हुए कर रहे थे। डॉ. दाभोलकर चमत्कारों और अंधविश्वासों की व्याख्याएं किसी बंद कमरे में नहीं बल्कि समुदाय में जाकर कर रहे थे और उनका यही प्रयास था कि समाज में वैज्ञानिक नज़रिये की स्थापना की लड़ाई को और भी ताक़त दिलाई जा सके। दाभोलकर ने हाल ही में समाज में अंतरजातीय विवाहों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक सम्मेलन का भी आयोजन किया था तथा सम्मेलन में इसी मुद्दे पर एक घोषणापत्र भी तैयार किया गया। वे पेशे से चिकित्सक थे लेकिन इसके साथ साथ वे सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक व आंदोलनकारी भी थे। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की आज महाराष्ट्र के साथ साथ गोवा एवं कर्णाटक में लगभग 200 शाखाओं का नेटवर्क है। उनकी हत्या के संभावित कारणों के सन्दर्भ में यह भी शक जताया जा रहा है कि वे रत्न और चमत्कारी पत्थरों के नाम पर लागों को ठगने वालों के ख़िलाफ अभियान शुरू करने जा रहे थे जिससे घबराये रत्न और चमत्कारी पत्थरों के कारोबारी उनके खिलाफ़ इकठ्ठा हो रहे थे। 

डॉ. दाभोलकर स्वयं में तर्कशील, प्रगतिवादी व वैज्ञानिक सोच से युक्त रहकर विगत लम्बे समय से समाज की चेतना का स्तर ऊपर उठाने की महती जिम्मेवारी से संलग्न थे। उनका मानना था कि हमें उनका विरोध करना चाहिए जो कि कर अदा करने वालों के पैसों को उत्सवों को मनाने या धार्मिक आयोजनों में लगाते हैं तथा मंदिर, मस्ज़िद, गिरिजाघरों आदि के व्यवस्थापन में ज़ाया करते हैं। बल्कि इस राशि को पानी, बिजली, संचार, यातायात, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे तमाम जनकल्याण एवं विकास कार्यों में लगाना चाहिए। 


दाभोलकर ने अंधश्रद्धा व काला जादू उन्मूलन क़ानून के लिए कहा था कि वे किसी के विश्वास का विरोध नहीं करते लेकिन वे अंधविश्वासों अथवा अंधश्रद्धा का विरोध करते हैं जो कई तरह से मनुष्य के शोषण का रास्ता तैयार करता है। इस सन्दर्भ में यह भी समझे जाने की आवश्यकता है कि पूंजीवादी राजसत्ता विज्ञान एवं वैज्ञानिक चेतना के विकास को ज़्यादा तरज़ीह नहीं देती है बल्कि वह मात्र बाज़ार के मंसूबों को पूरा करने में सक्षम तकनीकी विकास को ही महत्वपूर्ण मानती है। तकनीकी, विज्ञान नहीं बल्कि विज्ञान का एक हिस्सा है। 
हम यह भी जानते हैं कि विज्ञान मनुष्य के किसी भी अन्य क्रियाकलापों की तुलना में ज्यादा परिवर्तनशील है इसलिए आम लोगोँ को इस पर अधिक व सतत रूप से जागरूक बनाये जाने की ज़रूरत है. हमारे समाज को तकनीकी विकास की ज़रूरत है लेकिन उससे भी ज्यादा यह ज़रूरी है कि सामाजिक चेतना के स्तर को वैज्ञानिक रूप से विकसित किया जाए। दाभोलकर पिछले दो दशकों से भी ज्यादा लम्बे अरसे से जारी अपने प्रयासों के माध्यम से यही करना चाह रहे थे। लगता है हमारे शासक वर्ग इस तरह की प्रगतिकामी सोच को नीतियों और दस्तावेज़ों तक ही सीमित रखना चाह्ते है। इसीलिए वे इसे साकार होते हुए देखने के सच्चे प्रयासों से खुद को दूर ही रखते हैं। हमारे देश की नयी विज्ञान व तकनीकी नीति जो इस वर्ष की शुरुवात में लागू की गयी थी उसमें भी वैज्ञानिक चेतना के विकास की आवश्यकता को महत्वपूर्ण तरीके से रेखांकित किया गया है एवं इस हेतु हर स्तर के नवोन्मेष या नवाचार की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया गया है। लेकिन यह त्रासदीपूर्ण है कि हमारे देश में वैज्ञानिक चेतना के विकास के लिए उम्र भर प्रयास किये जाते रहने को संकल्पित दाभोलकर जैसों को सरेआम गोलियों से छलनी कर दिया जाता है। 

तमाम ऐतिहासिक कारणों के चलते हमारे देश में आज भी तमाम लोगों का मन जादू-टोना-टोटका और कई तरह के अंधविश्वासों की गिरफ़्त में है। इसके चलते वे लोग दैहिक, आर्थिक, मानसिक व अन्य प्रकार के शोषण के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बने हुए हैं। अपनी विशिष्ट सामाजिक स्थितियों के कारण महिलाएं व लड़कियां इस प्रकार के अंधविश्वासों की गिरफ्त में आसानी से आ जाती हैं और सबसे ज़्यादा शोषण का शिकार बनती हैं। उन्हें चुड़ैल, डायन, टोह्नी और न जाने क्या क्या करार दे उन पर ज़ुल्म व अपमान किये जाते हैं और यहाँ तक कि कई मामलों में उनकी जान तक ले ली जाती है। महिलाओं को चुड़ैल या डायन करार देने के खिलाफ़ हालांकि बिहार, झारखंड एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के पास अपने क़ानून हैं लेकिन इन क़ानूनों का दायरा इतना व्यापक नहीं है। अब अगर महाराष्ट्र में इस कानून का क्रियान्वयन सही तरीकों से होना सुनिश्चित हो सका तो इसके परिणाम उत्साहजनक होंगे। इस प्रकार का क़ानून पूरे देशके लिए तैयार कर उसको लागू कराये जाने के लिए जनलामबंदी भी लाजिमी है.


आख़िर मैं हम फिर अल्बर्ट आइन्स्टीन को ही याद करेंगे जिन्होंने कहा था कि पूर्वाग्रहों व ग़लत मान्यताओं को तोड़ पाना एटम को तोड़ने से भी ज्यादा मुश्किल काम है। निश्चित ही डॉ. दाभोलकर की शहादत हमें इस मुश्किल से लड़ते रहने को प्रेरित करती रहेगी ।


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