युवा संवाद मध्य प्रदेश का ब्लॉग

Archive for September 4, 2013

सवालों से डरा हुआ धर्म-तंत्र

     
                                                                                                                                           अरविंद शेष

“…नरेंद्र दाभोलकर जैसे लोग इन्हीं “उद्धारकों” की राह में मुश्किल खड़ी करते हैं, क्योंकि वे इंसान को दिमागी तौर पर शून्य बनाने वाले उन आस्थाओं-विश्वासों को सवालों के कठघरे में खड़ा करते हैं। और जाहिर है, ये सवाल चूंकि आखिरकार सामाजिक सत्ताओं के ढांचे को तोड़ते-फोड़ते हैं, इसलिए इस तरह के सवाल उठाने वाले लोगों से “मुक्ति” के लिए सीधे उन्हें खत्म करने का ही रास्ता अख्तियार किया जाता है।…”

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कुछ साल पहले कुछ कट्टरपंथी हिंदू समूहों ने इस बात पर संतोष जताया था कि महाराष्ट्र सरकार द्वारा लाए गए अंधविश्वास विरोधी कानून का भारी विरोध हुआ। वे समूह शायद इस कानून को हिंदुत्व को खत्म करने की साजिश मानते हैं। ऐसा करते हुए हिंदुत्व के वे उन्नायक खुद ही बता रहे थे कि चूंकि हिंदुत्व की बुनियाद अंधविश्वासों पर ही टिकी है, इसलिए अंधविश्वासों का खत्म होना, हिंदुत्व के खत्म होने जैसा होगा। हालांकि यह केवल हिंदुओं के धर्म-ध्वजियों का खयाल नहीं है। सभी धर्म और मत के ‘उन्नायक’ यही कहते हैं कि सवाल नहीं उठाओ, जो धर्म कहता है, उसका आंख मूंद कर पालन करो। और धर्म की सांस से जिंदा तमाम लोगों के भीतर का भय बाहर आने के लिए छटपटाते सारे सवालों की हत्या कर देता है। हमारी विडंबना यह है कि अपने जिन “उद्धारकों” से हम सवाल उठाने की उम्मीद कर रहे होते हैं, वे खुद एक ऐसा मायावी लोक तैयार करने में लगे होते हैं, जहां कोई सवाल नहीं होता। दरअसल, वे हमारे स्वघोषित “उद्धारक” होते ही इसीलिए हैं कि न केवल उनकी “भूदेव” की पदवी कायम रहे, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था भी अनंत काल तक बनी रहे, जिसमें अंधकार का साम्राज्य हो और समूचे समाज को अंधा बनाए रखा जा सके।


खासतौर पर जिस हिंदुत्व पर हम गर्व से अपनी छाती ठोंकते रहते हैं, उसमें यह साजिश ज्यादा विकृत इसलिए हो जाती है, क्योंकि यहां यह केवल आस्थाओं का कारोबार नहीं होता, बल्कि जन्म के आधार पर ऊंची और नीची कही जाने वाली जातियों की मानसिक और चेतनागत अवस्थिति बनाए रखने में भी अंधविश्वासों और आस्थाओं को हथियार के बतौर इस्तेमाल में लाया जाता है।


नरेंद्र दाभोलकर जैसे लोग इन्हीं “उद्धारकों” की राह में मुश्किल खड़ी करते हैं, क्योंकि वे इंसान को दिमागी तौर पर शून्य बनाने वाले उन आस्थाओं-विश्वासों को सवालों के कठघरे में खड़ा करते हैं। और जाहिर है, ये सवाल चूंकि आखिरकार सामाजिक सत्ताओं के ढांचे को तोड़ते-फोड़ते हैं, इसलिए इस तरह के सवाल उठाने वाले लोगों से “मुक्ति” के लिए सीधे उन्हें खत्म करने का ही रास्ता अख्तियार किया जाता है।


जाहिर है, बेमानी पारलौकिक विश्वासों को हथियार बना कर जड़ता की व्यवस्था को बनाए रखने में लगे लोगों-समूहों के पास अपने पक्ष में कोई तर्क नहीं होता, इसलिए वे सवालों से डरते हैं। अव्वल तो उनकी कोशिश यह होती है कि एक पाखंड और धोखे पर आधारित व्यवस्था को लेकर किसी तरह का सवाल नहीं उठे और इसके लिए वे सवालों और संदेहों को आस्था का दुश्मन घोषित करते हैं। वहीं एक भय की उपज पारलौकिकता की धारणाओं-कल्पनाओं में जीता व्यक्ति सवाल या संदेह करने को अपनी “आस्था” की पवित्रता भंग होना मानता है। अगर किन्हीं स्थितियों में किसी व्यक्ति के भीतर आस्था के तंत्र के प्रति शंका पैदा होती है और वह इसे जाहिर करता है तो धर्माधिकारियों से लेकर उनके अनुचरों तक की ओर से उसकी आस्था में खोट बताया जाता है या उसे अपवित्र घोषित कर दिया जाता है।


इसके अलावा, सवालों से निपटने के लिए एक और तरीका अपनाया जाता है। सवाल उठाने वाले को संदिग्ध बता कर उसके सवालों पर पूरी तरह चुप्पी साध ली जाती है। इससे भी हारने के बाद अक्सर धर्माधिकारी यह कहते पाए जाते हैं कि प्रश्न उठाने वाला व्यक्ति “ईश्वर का ही दूत है… और ऐसा करके वह वास्तविक भक्तों की परीक्षा ले रहा है।” कई बार उसे मनुष्य-मात्र की दया का पात्र भी घोषित कर दिया जा सकता है। इसके बावजूद जब “धर्म” की व्यवस्था पर खतरा बढ़ता जाता है, तब खतरे का जरिया बने व्यक्ति की आवाज को शांत करने के लिए उस रास्ते का सहारा लिया जाता है, जिसमें नरेंद्र दाभोलकर को अपनी जान गंवानी पड़ी।

सामाजिक विकास के एक ऐसे दौर में, जब प्रकृति का कोई भी उतार-चढ़ाव या रहस्य समझना संभव नहीं था, तो कल्पनाओं में अगर पारलौकिक धारणाओं का जन्म हुआ होगा, तो उसे एक हद तक मजबूरी मान कर टाल दिया जा सकता है। लेकिन आज न सिर्फ ज्यादातर प्राकृतिक रहस्यों को समझ लिया गया है, बल्कि किसी भी रहस्य या पारलौकिकता की खोज की जमीन भी बन चुकी है। यानी विज्ञान ने यह तय कर दिया है कि अगर कुछ रहस्य जैसा है, तो उसकी कोई वजह होगी, उस वजह की खोज संभव है। तो ऐसे दौर में किसी बीमारी के इलाज के लिए तंत्र-मंत्र, टोना-टोटका का सहारा लेना, बलि चढ़ाना, मनोकामना के पूरा होने के लिए किसी बाबा या धर्माधिकारी जैसे व्यक्ति की शरण में जाना एक अश्लील उपाय लगता है। बुखार चढ़ जाए और मरीज या उसके परिजनों के दिमाग में यह बैठ जाए कि यह किसी भूत या प्रेत का साया है, यह चेतना के स्तर पर बेहद पिछड़े होने का सबूत है, भक्ति या आस्था निबाहने में अव्वल होने का नहीं। 

इस तरह की धारणाओं के साथ जीता व्यक्ति अपनी इस मनःस्थिति के लिए जितना जिम्मेदार है, उससे ज्यादा समाज का वह ढांचा उसके भीतर यह मनोविज्ञान तैयार करता है। पैदा होने के बाद जन्म-पत्री बनवाने से लेकर किसी भी काम के लिए मुहूर्त निकलवाने के लिए धर्म के एजेंटों का मुंह ताकना किसी के भी भीतर पारलौकिकता के भय को मजबूत करता जाता है और उसके व्यक्तित्व को ज्यादा से ज्यादा खोखला करता है।

सवाल है कि समाज का यह मनोविज्ञान तैयार करना या इसका बने रहना किसके हित में है? किसी भी धर्म के सत्ताधारी तबकों की असली ताकत आम समाज का यही खोखलापन होता है। पारलौकिक भ्रम की गिरफ्त में ईश्वर और दूसरे अंधविश्वासों की दुनिया में भटकते हुए लोग आखिरकार बाबाओं-गुरुओं, तांत्रिकों, चमत्कारी फकीरों जैसे ठगों के फेर में पड़ते हैं और अपना बचा-खुचा विवेक गवां बैठते हैं। यह केवल समाज के आम और भोले-भाले लोगों की बंददिमागी नहीं है, बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों तक को फर्जी और कथित चमत्कारी बाबाओं के चरणों में सिर नवाने में शर्म नहीं आती। यही नहीं, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिक तक अंतरिक्ष यानों के सफल प्रक्षेपण की प्रार्थना करते हुए पहले मंदिरों में पूजा करते दिख जाते हैं। यह बेवजह नहीं हैं कि कला या वाणिज्य विषय तो दूर, स्कूल-कॉलेजों से लेकर उच्च स्तर पर इंजीनिरिंग या चिकित्सा जैसे विज्ञान विषयों में शिक्षा हासिल करने के बावजूद कोई व्यक्ति पूजा-पाठ या अंधविश्वासों में लिथड़ा होता है।


ऐसे में अगर कोई अंतिम रूप से यह कहता है कि मैं ईश्वर और धर्म का विरोध नहीं करता हूं, मैं सिर्फ अंधविश्वासों के खिलाफ हूं तो वह एक अधूरी लड़ाई की बात करता है। धर्म और ईश्वर को अंधविश्वासों से बिल्कुल अलग करके देखना या तो मासूमियत है या फिर एक शातिर चाल। हां, अंध-आस्थाओं में डूबे समाज में ये अंधविश्वासों की समूची बुनियाद के खिलाफ व्यापक लड़ाई के शुरुआती कदम हो सकते हैं। इसे पहले रास्ते पर अपने साथ लाने की प्रक्रिया कह सकते हैं। लेकिन बलि, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, गंडा-ताबीज, बाबा-गुरु, तांत्रिक अनुष्ठान आदि के खिलाफ एक जमीन तैयार करने के बाद अगर रास्ता समूचे धर्म और ईश्वर की अवधारणा से मुक्ति की ओर नहीं जाता है तो वह अधूरे नतीजे ही देगा।

वैज्ञानिक चेतना से लैस कोई भी व्यक्ति यह समझता है कि दुनिया में मौजूद तमाम अंधविश्वास का सिरा पारलौकिक आस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यह तो नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति बलि देने या बीमारी का इलाज कराने के लिए चमत्कारी बाबाओं का सहारा तो न ले, लेकिन ईश्वर या धर्म को अपनी जीवनचर्या का अनिवार्य हिस्सा माने। अगर वह सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार किसी भी तरह के मत-संप्रदाय का अनुगामी है तो उसका रास्ता आखिरकार एक पारलौकिक अमूर्त व्यवस्था की ओर जाता है, जहां वह खुद पर भरोसा करने के बजाय अपने अतीत, वर्तमान या भविष्य के लिए ईश्वर से की गई या की जाने वाली कामना को जिम्मेदार मानता है। इससे बड़ा प्रहसन क्या हो सकता है कि उत्तराखंड में बादल फटने या प्रलयंकारी बाढ़ के बावजूद अगर कुछ लोग बच गए तो उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया जाए और उसी वजह से कई-कई हजार लोग बेमौत मर गए, तो उसके लिए ईश्वर को जिम्मेदार नहीं माना जाए। बिहार के खगड़िया में कांवड़ लेकर भगवान को जल अर्पित करने जाते करीब चालीस लोग रेलगाड़ी से कट कर मर जाते हैं तो इसके लिए ईश्वर जिम्मेदार नहीं है और जो लोग बच गए, उन्हें ईश्वर से बचा लिया…!!!

यह ईश्वरवाद किस सामाजिक व्यवस्था के तहत चलता है। अपनी अज्ञानता की सीमा में छटपटाते लोगों ने पारलौकिकता की रचना की, कुछ लोगों ने उसकी व्याख्या का ठेका उठा लिया, उनकी महंथगीरी ने एक तंत्र बुन दिया, वह धर्म हो गया। यह केवल हिंदू या सनातन धर्म का नहीं, बल्कि सभी धर्मों का सच है। इसके बाद बाकी लोग सिर्फ पालक हैं, जिनके भोलेपन और प्रश्नविहीन होने के कारण ही यह धार्मिक-तंत्र चलता रहता है। ईश्वर-व्यवस्था के प्रति लोगों के भीतर कोई संदेह नहीं पैदा हो, इसके लिए तमाम इंतजाम किए जाते हैं। यह इंतजाम करने वाले वे लोग होते हैं, जो किसी भी धर्म-तंत्र के शीर्ष पर बैठे होते हैं। हालांकि यह “इंतजाम” का मनोविज्ञान अपने आप नीचे की ओर भी उतर जाता है और एक “ईश्वरीय” व्यवस्था या धर्म पर शक करने या उस पर सवाल उठाने वालों से निचले स्तर पर वे लोग भी “निपट” लेते हैं, जो खुद ही किसी धार्मिक-व्यवस्था के पीड़ित और भुक्तभोगी होते हैं।

  

 


ये “मैजोकिज्म” और “सैडिज्म” के मनोवैज्ञानिक चरणों के नतीजे हैं। “मैजोकिज्म” की अवस्था में कोई व्यक्ति अपने धर्मगुरु (इसे किसी धार्मिक व्यवस्था में जीवनचर्या को प्रभावित-संचालित करने वाले उपदेश भी कह सकते हैं) की किसी भी तरह की बात या व्यवहार पर कोई सवाल नहीं उठाता, भले कहीं कोई बात उसे गलत लगे। लेकिन वास्तव में यह गलत लगना उसके भीतर एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया को जन्म देता है, जिसे वह खुद भी नहीं समझ पाता, लेकिन अपने भीतर जज्ब कर लेता है। लेकिन यह प्रकृति का नियम है कि आप कुछ ग्रहण करेंगे तो उसका त्याग अनिवार्य है। इसलिए गुरु की किसी बात से मन में उपजी प्रतिक्रिया हर हाल में “रिलीज” होती है, यानी अपने निकलने का कोई न कोई रास्ता खोज लेती है। लेकिन तब इसका स्वरूप खाना सहज तरीके नहीं पचने के बाद उल्टियां होने की तरह बेहद विकृत हो सकता है। यानी यह “सैडिज्म” की अवस्था है। तो अपने धर्मगुरु की हर बात पचाने वाला व्यक्ति अपने घर में अपनी पत्नी या बच्चों के साथ बेहद बर्बर तरीके से पेश आ सकता है, किसी कमजोर व्यक्ति या कमजोर सामाजिक समूह के खिलाफ नफरत से भरा दिख सकता है, जोर-जोर की आवाज में बेहद वीभत्स गालियां बक सकता है या किसी वस्तु की बेमतलब तोड़फोड़ भी कर सकता है। इस तरह की कई मानसिक अवस्थाएं हो सकती हैं।



बहरहाल, नरेंद्र दाभोलकर आम जीवन में पसरे जिन अंधविश्वासों के खिलाफ मोर्चा ले रहे थे, उसका सिरा आखिरकार धर्म-तंत्र और फिर ईश्वर पर संदेहों की ओर जाता था। और जाहिर है, यह संदेह अंधविश्वासों और अंध-आस्थाओं पर टिके समूचे कारोबार और समाज के सत्ताधारी तबकों का साम्राज्य ध्वस्त कर सकता है। इसलिए इस तरह के संदेहों के भय से उपजी प्रतिक्रिया भी उतनी विकृत हो सकती है, जिसके शिकार नरेंद्र दाभोलकर हुए। यह हत्या दरअसल अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले तमाम धर्मों और उनके धर्माधिकारियों के डर और कायरता का सबूत है। यह अंधे विश्वासों के सरमायेदारों के डर का प्रतीक है। अपनी दुकान के बंद हो जाने के डर से एक ऐसे शख्स की जान तक ले ली जा सकती है, जिसने अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले धर्मों के खिलाफ इंसान की आंखें खोलने के आंदोलन में खुद को समर्पित कर दिया हो। यह केवल एक शख्स की हत्या नहीं है, यह तथाकथित धर्म के क्रूर मनोविज्ञान के खिलाफ एक विचार की हत्या की कोशिश है। इंसान के खुद पर भरोसे की और इंसानियत की एक नई और रौशन दुनिया के ख्वाब की हत्या की कोशिश है।

लेकिन क्या नरेंद्र दाभोलकर की हत्या से अंधविश्वासों के खिलाफ उनके विचारों को खत्म क्या जा सकेगा? जिन्हें भी लगता है कि अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले धर्मों ने इस इंसानी समाज को बांटने, उसे कुंठित करने, नफरत फैलाने, सभ्यता को कुंद करने या एक तरह से मनुष्य विरोधी दुनिया बनाने में भूमिका निभाई है, उन सबको नरेंद्र दाभोलकर के नाम को अपनी ताकत बना कर आगे बढ़ना चाहिए। नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों और उसके अपराधी योजनाकारों को बताना चाहिए कि एक नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के बाद हजारों और ऐसे लोग पैदा हो चुके हैं।

अरविंद शेष पत्रकार हैं. अभी  जनसत्ता (दिल्ली) में नौकरी. 

इनसे संपर्क का पता- arvindshesh@gmail.co

arvind.shesh@facebook.com

Courtesy-  http://www.patrakarpraxis.com

"आम्ही सगले दाभोलकर" [ हम सब दाभोलकर ]

अंधश्रद्धा के खिलाफ संघर्षरत एक संग्रामी की शहादत

सुभाष गाताडे
  


‘‘जिन्दगी जीने के दो ही तरीके मुमकिन हैं। पहला यही कि कोई भी चमत्कार नहीं। दूसरा, सबकुछ चमत्कार ही है।
                                                                                                                   अलबर्ट आइनस्टाइन
लफ्जों की यह खासियत समझी जाती है कि वे पूरी चिकित्सकीय निर्लिप्तता के साथ ग्राही/ग्रहणकर्ता के पास पहुंचते हैं। यह ग्राही पर निर्भर करता है कि वह उनके मायने ढूढने की कोशिश करे। बीस अगस्त की अलसुबह पुणे की सड़क पर अंधश्रद्धा विरोधी आन्दोलन के अग्रणी कार्यकर्ता डा नरेन्द्र दाभोलकर की हुई सुनियोजित हत्या की ख़बर से उपजे दुख एवं सदमे से उबरना उन तमाम लोगों के लिए अभीभी मुश्किल जान पड़ रहा है, जो अपने अपने स्तर पर प्रगति एवं न्याय के संघर्ष में मुब्तिला हैं।

पुणे के निवासियों के एक बड़े हिस्से के लिए मुला मुठा नदी के किनारे बना ओंकारेश्वर मंदिर वह जगह हुआ करती रही है जहां लोग अपने अन्तिम संस्कार के लिए ले लाए जाते रहे हैं। इसे विचित्रा संयोग कहा जाएगा कि उसी मन्दिर के ऊपर बने पूल से अल सुबह गुजरते हुए डा नरेन्द्र दाभोलकर ने अपनी झंझावाती जिन्दगी की चन्द आखरी सांसें लीं। एक जुम्बिश ठहर गयी, एक जुस्तजू अधबीच थम गयी। मोटरसाइकिल पर सवार हत्यारे नौजवानों द्वारा दागी गयी चार गोलियों में से दो उनके सिर के पिछले हिस्से में लगी थी और वह वहीं खून से लथपथ गिर गए थे।

अपनी मृत्यु के एक दिन पहले शाम के वक्त मराठी भाषा के सहयाद्री टीवी चैनल पर उपस्थित होकर वह जाति पंचायतों की भूमिका पर अपनी राय प्रगट कर रहे थे। उस वक्त किसे यह गुमान हो सकता था कि उन्हें सजीवअर्थात लाइव सुनने का यह आखरी अवसर होनेवाला है। यह पैनल चर्चा नासिक जिले की एक विचलित करनेवाली घटना की पृष्ठभूमि में आयोजित की गयी थी, जहां किसी कुम्हारकर नामक व्यक्ति द्वारा अपनी जाति पंचायत के आदेश पर अपनी बेटी का गला घोंटने की घटना सामने आयी थी। वजह थी उसका अपनी जाति से बाहर जाकर किसी युवक से प्रेमविवाह। चर्चा में हिस्सेदारी करते हुए डा दाभोलकर बता रहे थे कि किस तरह उन्होंने हाल के दिनों में अन्तरजातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए सम्मेलन का आयोजन किया था और इसी मसले पर घोषणापत्रा भी तैयार किया था।

एक बहुआयामी व्यक्ति – प्रशिक्षण से डाक्टरी चिकित्सक, अपनी रूचि के हिसाब से देखें तो लेखक-सम्पादक एवं वक्ता और एक आवश्यकता की वजह से एक आन्दोलनकारी, यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पूरे मुल्क के तर्कशील आन्दोलन के लिए वह एक अद्भुत मिसाल थे और अपने संगठन एवं उसकी 200 से अधिक शाखाओं के जरिए सूबा महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं गोवा में जनजागृति के काम में लगे थे। बहुत कम लोग जानते थे कि अपने स्कूल-कालेज के दिनों में वह जानेमाने कब्बडी के खिलाड़ी थे, जिन्होंने भारतीय टीम के लिए मेडल भी जीते थे। हालांकि उन्होंने अपने सामाजिक जीवन की शुरूआत डाक्टरी प्रैक्टिस से की थी, मगर जल्द ही वह डा बाबा आढाव द्वारा संचालित एक गांव, एक जलाशय (पाणवठा)नामक मुहिम से जुड़ गए थे। विगत दो दशक से अधिक समय से वह अंधश्रद्धा के खिलाफ मुहिम में मुब्तिला थे।

डा दाभोलकर की प्रचण्ड लोकप्रियता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके मौत की ख़बर सुनते ही महाराष्ट्र के तमाम हिस्सों में स्वतःस्फूर्त प्रदर्शन हुएऔर उनके गृहनगर सातारा में तो जुलूस में शामिल हजारों की तादाद ने जिन्दगी के सत्तरवें बसन्त की तरफ बढ़ रहे अपने नगर के इस प्रिय एवं सम्मानित व्यक्ति को अपनी आदरांजलि दे दी। 21 अगस्त को पुणे शहर में सभी पार्टियों के संयुक्त आवाहन पर बन्द का आयोजन किया गया।

राजनेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं तक सभी ने डाॅक्टर दाभोलकर को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है। उन्हें किस हद तक विरोध का सामना करना पड़ता था इस बात का अन्दाज़ा इस तरह लगाया जा सकता है कि विगत अठारह साल से महाराष्ट्र विधानसभा के सामने एक बिल लम्बित पड़ा रहा है जिसका फोकस जादूटोना करनेवाले या काला जादू करनेवाली ताकतों पर रोक लगाना है। रूढिवादी हिस्से के विरोध को देखते हुए इस बिल में आस्था क्या है या अंधआस्था किसे कहेंगे इसको परिभाषित करने से बचा गया था और सूबे में व्यापक पैमाने पर व्यवहार में रहनेवाली अंधश्रद्धाओं को निशाने पर रखा गया था। ऐसी गतिविधियां संज्ञेय एवं गैरजमानती अपराध के तौर पर दर्ज हों, ऐसे अपराधों की जांच के लिए या उन पर निगरानी रखने के लिए जांच अधिकारी नियुक्त करने की बात भी इसमें की गयी थी।

महाराष्ट्र प्रीवेन्शन एण्ड इरेडिकेशन आफ हयूमन सैक्रिफाइस एण्ड अदर इनहयूमन इविल प्रैक्टिसेस एण्ड ब्लैक मैजिकशीर्षक इस बिल का हिन्दु अतिवादी संगठनों ने लगातार विरोध किया है, पिछले दो साल से वारकरी समुदाय के लोगों ने भी विरोध के सुर में सुर मिलाया है। और इन्हीं का हवाला देते हुए इस अन्तराल में सूबे में सत्तासीन सरकारों ने इस बिल को पारित नहीं होने दिया है। आप इसे डा दाभोलकर की हत्या से उपजे जनाक्रोश का नतीजा कह सकते हैं या सरकार द्वारा अपनी झेंप मिटाने के लिए की गयी कार्रवाई कह सकते हैं कि कि इस दुखद घटना के महज एक दिन बाद महाराष्ट्र सरकार के कैबिनेट में इस बिल को लेकर एक अध्यादेश लाने का निर्णय लिया गया है।

निःस्सन्देह उनकी हत्या के पीछे एक सुनियोजित साजिश की बू आती है। आखिर किसने ऐसे शख्स की हत्या की होगी जिसने महाराष्ट्र की समाजसुधारकों की – ज्योतिबा फुले, महादेव गोविन्द रानडे या गोपाल हरि आगरकर – विस्मृत हो चली परम्परा को नवजीवन देने की कोशिश की थी ?

कई सारी सम्भावनाएं हैं। यह सही है कि उनके कोई निजी दुश्मन नहीं थे मगर अंधश्रद्धा के खिलाफ उनके अनवरत संघर्ष ने ऐसे तमाम लोगों को उनके खिलाफ खड़ा किया था, जिनको उन्होंने बेपर्द किया था। तयशुदा बात है कि ऐसे लोग कारस्तानियों में लगे होंगे। राजनीति में सक्रिय यथास्थितिवादी शक्तियों के लिए भी उनके काम से परेशानी थी। पुलिस ने कहा कि वह इन आरोपों की भी पड़ताल करेगी कि इसके पीछे सनातन संस्था और हिन्दू जनजागृति समिति जैसी अतिवादी संस्थाओं का हाथ तो नहीं है, जिसके सदस्य महाराष्ट्र एवं गोवा में आतंकी घटनाओं में शामिल पाए गए हैं। इस बात को रेखांकित करना ही होगा कि कई भाषाओं में प्रकाशित अपने अख़बार सनातन प्रभातके जरिए इन संस्थाओं ने डा दाभोलकर के खिलाफ जबरदस्त मुहिम चला रखी थी, इतनाही नहीं उन्होंने दाभोलकर के ऐसे फोटो भी प्रकाशित किए थे, जिसे लाल रंग से क्रास किया गया था, जिसमें उनकी सांकेतिक समाप्ति की तरफ इशारा था।

डा दाभोलकर को दी अपनी श्रद्धांजलि में लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक आनन्द तेलतुम्बडे लिखते हैं कि (http://www.countercurrents.org/teltumbde230813.htm)
  ‘..दाभोलकर की हत्या के बाद भी सनातन संस्था ने उनके प्रति अपनी घृणा के भाव को छिपाया नहीं बल्कि अगले ही दिन जबकि पूरा राज्य दुख एवं सदमे में था, उन्होंने अपने मुखपत्रा में लिखा कि यह ईश्वर की कृपा थी कि दाभोलकर की मृत्यु ऐसे हुई। गीता को उदधृत करते हुए लिखा गया कि जो जनमा है, उसकी मृत्यु निश्चित है, जन्म एवं मृत्यु हरेक की नियति के हिसाब से होते हैं। हरेक को अपने कर्म का फल मिलता है। बिस्तर पर पड़े पड़े बीमारी से मरने के बजाय, डा दाभोलकर की जो मृत्यु हुई वह ईश्वर की ही कृपा थी।’..इतनाही नहीं इस हत्या से अपने सम्बन्ध से इन्कार करने के लिए बुलायी गयी प्रेस कान्फेरेन्स में उन्हें यह कहने में भी संकोच नहीं हुआ कि वह दाभोलकर की लाल रंग से क्रॉस  की गयी तस्वीर की तरह कई अन्यों की तस्वीरें भी प्रकाशित करेंगे। कहने का तात्पर्य कि जो दाभोलकर की राह चलेगा उन्हें वह नष्ट करेंगे।

ऐसा नहीं था कि डा दाभोलकर को इस बात का अन्दाजा नहीं था कि ऐसी ताकतें किस हद तक जा सकती हैं। उनके परिवार के सदस्यों के मुताबिक उन्हें अक्सर धमकियां मिलती थीं, लेकिन उन्होंने पुलिस सुरक्षा लेने से हमेशा इन्कार किया।

 उनके बेटे हामिद ने कहा कि ‘‘वे कहते थे कि उनका संघर्ष अज्ञान की समाप्ति के लिए है और उससे लड़ने के लिए उन्हें हथियारों की जरूरत नहीं है।’’ उनके भाई ने अश्रुपूरित नयनों से बताया कि जब हम लोग उनसे पुलिस सुरक्षा लेने का आग्रह करते थे, तो वह कहते थे कि अगर मैंने सुरक्षा ली तो वे लोग मेरे साथियों पर हमला करेंगे। और यह मैं कभी बरदाश्त नहीं कर सकता। जो होना है मेरे साथ हो।’’

विभिन्न बाबाओं के खिलाफ एवं साध्वियों के खिलाफ भी उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समितिके बैनरतले आन्दोलन चलाया था। एक किशोरी के साथ कथित बलात्कार के आरोपों के चलते इन दिनों सूर्खियां बटोर रहे आसाराम बापू ने पिछले दिनों होली के मौके पर नागपुर में अपने शिष्यों के साथ होली के कार्यक्रम का आयोजन किया था। काफी समय से सूखा झेल रहे महाराष्ट्र में इस कार्यक्रम के लिए लाखों लीटर पीने के पानी के टैंकरों का इन्तजाम किया गया था। समिति के बैनरतले डा दाभोलकर ने इस कार्यक्रम को चुनौती दी और अन्ततः यह कार्यक्रम नहीं हो सका। चर्चित निर्मल बाबा के खिलाफ भी डा दाभोलकर ने पिछले दिनों अपना मोर्चा खोला था। यू टयूब पर आप चाहें तो डा दाभोलकर के भाषण को सुन सकते हैं निर्मल बाबा: शोध आणि बोध। यह वही निर्मल बाबा हैं जिनका कार्यक्रम एक साथ 40 विभिन्न चैनलों पर चलता है जहां लोगों को उनकी समस्याओं के समाधान के नाम पर ईश्वरीय कृपा की सौगात दी जाती है। उनकी समागम बैठकों में 2000 रूपए के टिकट भी लगते हैं।

वर्ष 2008 में डा दाभोलकर एवं अभिनेता एवं समाजकर्मी डा श्रीराम लागू ने ज्योतिषियों के लिए एक प्रश्नमालिका तैयार की और कहा कि अगर उन्होंने तर्कशीलता की परीक्षा पास की तो उन्हें पुरस्कार मिल सकता है। अभी तक इस पर दांवा ठोकने के लिए कोई आगे नहीं आया। वर्ष 2000 में अपने संगठन की पहल पर उन्होंने राज्य के सैकड़ो महिलाओं की रैली अहमदनगर जिले के शनि शिंगणापुर मन्दिर तक निकाली जिसमें महिलाओं के लिए प्रवेश वर्जित था। न केवल रूढिवादी तत्वों ने बल्कि शिवसेना एवं भाजपा के कार्यकर्ताओं ने परम्परा एवं आस्था की दुहाई देते हुए महिलाओं के प्रवेश को रोकना चाहा, उनकी गिरफ्तारियां भी हुईं और फिर मामला मुंबई की उच्च अदालत पहुंचा और सुनने में आया है कि मामला पूरा होने के करीब है।

अपने एक आलेख रैशनेलिटी मिशन फार सक्सेस इन लाइफमें जिसमें उनका मकसद आवश्यक बदलाव के लिए लोगों को प्रेरित करना हैउन्होंने लिखा था:परम्पराओं, रस्मोरिवाज और मन को विस्मित कर देनेवाली प्रक्रियाओं से बनी युगों पुरानी अंधश्रद्धाओं की पूर्ति के लिए पैसा, श्रम और व्यक्ति एवं समाज का समय भी लगता है। आधुनिक समाज ऐसे मूल्यवान संसाधनों को बरबाद नहीं कर सकता। दरअसल अंधश्रद्धाएं इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि गरीब एवं वंचित लोग अपने हालात में यथावत बने रहें और उन्हें अपने विपन्न करनेवाले हालात से बाहर आने का मौका तक न मिले। आइए हम प्रतिज्ञा लें कि हम ऐसी किसी अंधश्रद्धा को स्थान नहीं देगें और अपने बहुमूल्य संसाधनों को बरबाद नहीं करेंगे। उत्सवों पर करदाताओं का पैसा बरबाद करनेवाली, कुम्भ मेला से लेकर मंदिरों/मस्जिदों/गिरजाघरों के रखरखाव के लिए पैसा व्यय करनेवाली सरकारों का हम विरोध करेंगे और यह मांग करेंगे कि पानी, उर्जा, कम्युनिकेशन, यातायात, स्वास्थ्यसेवा, प्रायमरी शिक्षा और अन्य कल्याणकारी एवं विकाससम्बन्धी गतिविधियों के लिए वह इस फण्ड का आवण्टन करें।

उनके जीवन की एक अन्य कम उल्लेखित उपलब्धि रही है, विगत अठारह साल से उन्होंने किया साधनानामक साप्ताहिक का सम्पादन, जिसने अपनी स्थापना के 65 साल हाल ही में पूरे किए। जानकार बताते हैं कि जब उन्होंने सम्पादक का जिम्म सम्भाला तो सानेगुरूजी जैसे स्वतंत्राता सेनानी एवं समाजसुधारक द्वारा स्थापित यह पत्रिका काफी कठिन दौर से गुजर रही थी, मगर उनके सम्पादन ने इस परिदृश्य को बदल दिया और आज भी यह पत्रिका तमाम परिवर्तनकामी ताकतों के विचारों के लिए मंच प्रदान करती है।

ठीक ही कहा गया है कि डा दाभोलकर की असामयिक मौत देश के तर्कवादी आन्दोलन के लिए गहरा झटका है। देश में दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के चलते पहले से ही तमाम चुनौतियों का सामना कर रहे इस आन्दोलन ने अपने एक सेनानी को खोया है। मगर अतिवादी ताकतों के हाथ उनकी मौत दरअसल उन सभी के लिए एक झटका कही जा सकती है जो देश में एक प्रगतिशील बदलाव लाने की उम्मीद रखते हैं। अब यह देखना होगा कि उनकी मृत्यु से उपजे प्रचण्ड दुख एवं गुस्से को ऐसी तमाम ताकतें मिल कर किस तरह एक नयी संकल्पशक्ति में तब्दील कर पाती हैं ताकि अज्ञान, अतार्किकता एवं प्रतिक्रिया की जिन ताकतों के खिलाफ लड़ने में डा दाभोलकर ने मृत्यु का वरण किया, वह मशाल आगे भी जलती रहे।

प्रतिक्रियावादी तत्व भले ही डा दाभोलकर को मारने में सफल हुए हों, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस तरह से उनकी हत्या हुई है उसने तमाम नए लोगों को भी दिमागी गुलामी के खिलाफ जारी इस व्यापक मुहिम से जोड़ा भी है। यह अकारण नहीं कि महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों पर हुई रैलियों में तमाम बैनरों, पोस्टरों में एक छोटेसे पोस्टर ने तमाम लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था जिस पर लिखा था आम्ही सगले दाभोलकर’ (हम सब दाभोलकर)।

जादू टोना विरोधी विधेयक में यह माना जाएगा अपराध

भूत भगाने के नाम पर किसी को मारना या पीटना, पर किसी तरह का मंत्रा पढ़ने पर पाबन्दी नहीं होगी।
चमत्कार के नाम पर दूसरों को धोखा देना या पैसा लेना
किसी की जिन्दगी को खतरे में डाल कर अघोरी तरीके का इस्तेमाल करना
भानामती, करणी, जारणमरण, गुप्तधन के नाम से अमानवीय काम करना या नरबलि देना
दैवी शक्ति का दावा होने के नाम पर डर फैलाना
पिछले जन्म में पत्नी, प्रेमिका या प्रेमी होने का दावा कर या बच्चा होने का आश्वासन देकर संबंध बनाना
उंगली से आपरेशन का दावा करना
गर्भवती महिलाओं के लिंग परिवर्तन का दावा करना
भूत पिशाच का आवाहन करते हुए डर फैलाना
कुत्ता, बिच्छू, सांप काटने पर दवा देने से मना करके मंत्रा द्वारा ठीक करने का दावा करना
मतिमंद व्यक्ति में अलौकिक शक्ति का दावा कर उस व्यक्ति का इस्तेमाल धंधे या व्यवसाय के लिए करना
 Subhash Gatade is a New Socialist Initiative (NSI) activist. He is also the author ofGodse’s Children: Hindutva Terror in India, and The Saffron Condition: The Politics of Repression and Exclusion in Neoliberal India.

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