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Archive for the ‘फ़ज़ल ताबिश’ Category

फ़ज़ल ताबिश -भोपाल का शायर

 

जिंदगी हिसाबों से जी नहीं जाती

निदा फाज़ली

 

 

 

एक थे फ़ज़ल ताबिश । आज से तीस-चालीस साल पहले का भोपाल आज जैसा भोपाल नहीं था। जगह-जगह मुशायरों की महफिलें सजाता था, शेर सुनाता था और दाद पाता था। जवान, अधेड़ और बुजुर्ग, वह एक साथ कई चेहरों में नजर आता था। कहीं तो कच्चे दालानों में गॉव-तकियों से पीठ टिकाए ग़ज़ल के इतिहास को दोहराता था,कहीं अधेंड़ बनकर छोटे-बड़े चायखानों में ग़ज़ल और राजनीति के रिश्तों  पर नई-नई बहसें जगाता था और कहीं नौजवानों जैसी नई शायरी सुनाता था और रात को देर तक पान की गिलौरियॉ चबाता था।

 

फ़ज़ल ताबिश उस भोपाल के नौजवान प्रतिनिधि थे। मुंह में होठों को लाल करता पान,उंगली पर चूने का चुटकी-भर निशान, पठानी आनबान और बात-बात पर  गूजते क़हक़हों की उड़ान उनकी पहचान थी। वह बहुत हॅसते थे। अपने हमउम्रों में उनके पास सबसे ज़्यादा हॅसी का भंडार था, जिसे वह जी खोलकर खर्च करते थे। किसी परिचित की परेशानियॉ या किसी अजनबी की हैरानी के अलावा हर घटना या विषय उनके लिए क़हक़हा ताज और दुष्यंत की गज़ल, शेरी भोपाली की शेरवानी, क़ैफ भोपाली के फक्कड़पन की तरह भोपाल में मशहूर था। फ़र्क केवल इतना था,  ताज, शेरी, कैफ़ और दुष्यंत भोपाल के बाहर भी जाने जाते थे और फ़जल के क़हक़हे अभी सिर्फ तालाबों के इर्द-गिर्द ही पहचाने जाते थे। लगातार हॅसने ने फ़ज़ल के चेहरे की शादाबी में इज़ाफ़ा किया था। उनका एक शेर है-

न कर शुमार कि हर शै गिनी नहीं जाती

ये ज़िंदगी है हिसाबों से जी नहीं जाती

 

मिर्ज़ा ग़ालिब ने बुढ़ापे में अपनी महबूबा के हुस्न को याद किया था, जिसके बारे में सबने उनके ख़तों के संग्रह में पढ़ा। फ़ज़ल ताबिश को मैने ऑखों से देखा था। उनके ब्यक्तित्व में काबुल के सुर्ख सेबों की तरुणाई और वहॉ के बर्फपोश पहाड़ों की ऊचाइयों का आकर्षण था। शादी से पहले वह बहुत-सी ऑखों के सपने थे, लेकिन शादी के बाद सिर्फ ताहिरा ख़ॉ के अपने थे। ताहिरा ख़ॉ उनकी बेगम थीं। इस संबंध में उनका एक शेर है-

 

फिर हमने एक प्यार किया,फिर वही हुआ

वो दिलबर भी ताहिरा ख़ॉ से हार गया

 

बात-बात पर घड़ी-घड़ी हॅसने वाले फ़ज़ल ताबिश एक नाराज़ जे़हन के फ़नकार थे। उनकी नाराज़गी सियासत से थी, धार्मिक भेदभाव की लागत से थी, इंसान के हाथों इंसान की शहादत से थी, उनकी कविता नेकी और बदी की लड़ाई में क्रियात्मक साझेदारी की फ़नकारी थी। वह आधुनिक प्रगतिशील शायर थे। उनका संग्रह ‘रोशनी किस जगह से काली है’ 1944 में प्रकाशित हुआ था। उनका एक शेर, जिसकी एक पंक्ति उनके संग्रह का नाम है, उनके काव्य चरित्र का बयान भी है-

 

रेशा-रेशा उधेड़कर देखो

रोशनी किस जगह से काली है

 

फ़ज़ल का जन्म 15 अगस्त 1933 में हुआ। भोपाल के एक पुराने ख़ानदान के चिराग़ थे। घर का माहौल मज़हबी था और घर के बाहर वह कम्युनिस्ट थे। उन दिनों भोपाल के लोकप्रिय कम्युनिस्ट, कॉमरेड शाकिर अली ख़ॉ थे। वह पॉचों वक्त़ खुदा के दरबार में सिर झुकाते थे और नमाजों के बाद सामाजिक नाइंसाफ़ियों के खि़लाफ सुर्ख परचम उठाते थे। फ़ज़ल ताबिश के स्वभाव का संतुलन भी इसी इलाकाई माहौल और भोपाली कम्युनिज्म की देन था। वह मुसलमान थे, लेकिन उनकी मुसलमानियत में दूसरे धर्मो की इंसानियत की भी इ़ज्ज़त शामिल थी।

 

फ़ज़ल ताबिश के साथ शुरु में जिंद़गी का सुलूक कुछ अच्ठा नहीं रहा। अभी वह प्रारंभिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाए थे कि अचानक सारा घर बोझ बनकर उनके कंधों पर आ गिरा। घर में सबसे बड़ा होने की सज़ा उन्होनें स्वीकार की और अपनी शिक्षा रोक कर एक कार्यालय में बाबूगिरी करने लगे। निरंतर 15 बरस घर की ज़िम्मेदारियों में खर्च होने के बाद जो थोड़ा-बहुत बचे थे, उससे उर्दू में एम.ए. किया और हमीदिया कॉलेज में लेक्चरर हो गए। जिंदगी की इस लंबी दौड-धूप में साहित्य भी साथ-साथ चलता रहा। शायरी के अलावा उन्होनें कहानियॉ भी लिखे, उपन्यास भी रचे और मणि कौल और कुमार शाहनी की फिल्मों में अभिन्य भी किया।

 

उनकी आमदनी सिर्फ अपने लिए नहीं थी। उसमें बहुत-सों की भागीदारी थी। इसमें ताज भोपाली का नशा था, एक दोस्त की बेटी की पढ़ाई थी, रात में यार-दोस्तों की मेहमाननवाज़ी थी और पार्टी व सामाजिक सम्मेलनों के लिए चंदा भी था। उनका घर भोपाल के इकबाल मैदान के सामने शीशमहल की ऊपरी मंज़िल में था। नवाबी दौर में यह इमारत कई पहरों की निगरानी में थी, जब से फ़ज़ल ताबिश का निवास बनी, शहर-भर के साहित्यकारों और पार्टी वर्करों की हुक्मरानी में थी। ताला-कुंडी से आज़ाद यह घर सबके लिए खुला था। फ़ज़ल घर में हों या न हों, ताहिरा ख़ॉ हों उनके दोस्तों में कोई भी किसी भी वक्त भी इसमें जा सकता था, रसोई में खाना खा सकता था, चाय बना सकता था, खा-पीकर आराम फ़रमा सकता था और तरो-ताजा वापस जा सकता था।

 

सहर फैला रही है अपने बाजू

मेरा साया सिमटता जा रहा है

 

फ़ज़ल ताबिश, शेरी , कैफ, ताज, दुष्यंत के बाद की नई पीढ़ी के शायर थे। वह भोपाल की तहज़ीब, उसके मूल्यों का मेयार थे,यारों के यार थे, महफ़िल में बड़े मैख़्वार थे। उन्होंने अपनी ज़िंदगी का आखिरी क़हक़हा अपने शीशमहल के बाहर वाले कमरे में अपने दोस्तों की संगत में लगाया था। उस रात वह इतना हॅसे कि दूसरे दिन के लिए उनके पास हॅसने को कोई और क़हक़हा नहीं बचा था। इसलिए वह हमेशा के लिए ख़ामोश हो गए।

 

सुनो हम दरख़्तों से फल तोड़ने के लिए

उनके लिए मातमी धुन बजाते नहीं

सुनो प्यार के क़हक़हों वाले मासूम लम्हों में हम

ऑसुओं के दियों को जलाते नहीं

 

 

फ़ज़ल के साथ वह भोपाल हमेशा के लिए रुख़सत हो गया, जो विषेश तहज़ीब से जाना जाता था और अपनी शायरी, तालाब और उदारता में पहचाना जाता था।

 

 

 

>फ़ज़ल ताबिश -भोपाल का शायर

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जिंदगी हिसाबों से जी नहीं जाती
निदा फाज़ली
एक थे फ़ज़ल ताबिश । आज से तीस-चालीस साल पहले का भोपाल आज जैसा भोपाल नहीं था। जगह-जगह मुशायरों की महफिलें सजाता था, शेर सुनाता था और दाद पाता था। जवान, अधेड़ और बुजुर्ग, वह एक साथ कई चेहरों में नजर आता था। कहीं तो कच्चे दालानों में गॉव-तकियों से पीठ टिकाए ग़ज़ल के इतिहास को दोहराता था,कहीं अधेंड़ बनकर छोटे-बड़े चायखानों में ग़ज़ल और राजनीति के रिश्तों  पर नई-नई बहसें जगाता था और कहीं नौजवानों जैसी नई शायरी सुनाता था और रात को देर तक पान की गिलौरियॉ चबाता था।
फ़ज़ल ताबिश उस भोपाल के नौजवान प्रतिनिधि थे। मुंह में होठों को लाल करता पान,उंगली पर चूने का चुटकी-भर निशान, पठानी आनबान और बात-बात पर  गूजते क़हक़हों की उड़ान उनकी पहचान थी। वह बहुत हॅसते थे। अपने हमउम्रों में उनके पास सबसे ज़्यादा हॅसी का भंडार था, जिसे वह जी खोलकर खर्च करते थे। किसी परिचित की परेशानियॉ या किसी अजनबी की हैरानी के अलावा हर घटना या विषय उनके लिए क़हक़हा ताज और दुष्यंत की गज़ल, शेरी भोपाली की शेरवानी, क़ैफ भोपाली के फक्कड़पन की तरह भोपाल में मशहूर था। फ़र्क केवल इतना था,  ताज, शेरीकैफ़ और दुष्यंत भोपाल के बाहर भी जाने जाते थे और फ़जल के क़हक़हे अभी सिर्फ तालाबों के इर्द-गिर्द ही पहचाने जाते थे। लगातार हॅसने ने फ़ज़ल के चेहरे की शादाबी में इज़ाफ़ा किया था। उनका एक शेर है-
न कर शुमार कि हर शै गिनी नहीं जाती
ये ज़िंदगी है हिसाबों से जी नहीं जाती
मिर्ज़ा ग़ालिब ने बुढ़ापे में अपनी महबूबा के हुस्न को याद किया था, जिसके बारे में सबने उनके ख़तों के संग्रह में पढ़ा। फ़ज़ल ताबिश को मैने ऑखों से देखा था। उनके ब्यक्तित्व में काबुल के सुर्ख सेबों की तरुणाई और वहॉ के बर्फपोश पहाड़ों की ऊचाइयों का आकर्षण था। शादी से पहले वह बहुत-सी ऑखों के सपने थे, लेकिन शादी के बाद सिर्फ ताहिरा ख़ॉ के अपने थे। ताहिरा ख़ॉ उनकी बेगम थीं। इस संबंध में उनका एक शेर है-
फिर हमने एक प्यार किया,फिर वही हुआ
वो दिलबर भी ताहिरा ख़ॉ से हार गया
बात-बात पर घड़ी-घड़ी हॅसने वाले फ़ज़ल ताबिश एक नाराज़ जे़हन के फ़नकार थे। उनकी नाराज़गी सियासत से थीधार्मिक भेदभाव की लागत से थी, इंसान के हाथों इंसान की शहादत से थी, उनकी कविता नेकी और बदी की लड़ाई में क्रियात्मक साझेदारी की फ़नकारी थी। वह आधुनिक प्रगतिशील शायर थे। उनका संग्रह रोशनी किस जगह से काली है’ 1944 में प्रकाशित हुआ था। उनका एक शेर, जिसकी एक पंक्ति उनके संग्रह का नाम है, उनके काव्य चरित्र का बयान भी है-
रेशा-रेशा उधेड़कर देखो
रोशनी किस जगह से काली है
फ़ज़ल का जन्म 15 अगस्त 1933 में हुआ। भोपाल के एक पुराने ख़ानदान के चिराग़ थे। घर का माहौल मज़हबी था और घर के बाहर वह कम्युनिस्ट थे। उन दिनों भोपाल के लोकप्रिय कम्युनिस्ट, कॉमरेड शाकिर अली ख़ॉ थे। वह पॉचों वक्त़ खुदा के दरबार में सिर झुकाते थे और नमाजों के बाद सामाजिक नाइंसाफ़ियों के खि़लाफ सुर्ख परचम उठाते थे। फ़ज़ल ताबिश के स्वभाव का संतुलन भी इसी इलाकाई माहौल और भोपाली कम्युनिज्म की देन था। वह मुसलमान थे, लेकिन उनकी मुसलमानियत में दूसरे धर्मो की इंसानियत की भी इ़ज्ज़त शामिल थी।
फ़ज़ल ताबिश के साथ शुरु में जिंद़गी का सुलूक कुछ अच्ठा नहीं रहा। अभी वह प्रारंभिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाए थे कि अचानक सारा घर बोझ बनकर उनके कंधों पर आ गिरा। घर में सबसे बड़ा होने की सज़ा उन्होनें स्वीकार की और अपनी शिक्षा रोक कर एक कार्यालय में बाबूगिरी करने लगे। निरंतर 15 बरस घर की ज़िम्मेदारियों में खर्च होने के बाद जो थोड़ा-बहुत बचे थे, उससे उर्दू में एम.ए. किया और हमीदिया कॉलेज में लेक्चरर हो गए। जिंदगी की इस लंबी दौड-धूप में साहित्य भी साथ-साथ चलता रहा। शायरी के अलावा उन्होनें कहानियॉ भी लिखे, उपन्यास भी रचे और मणि कौल और कुमार शाहनी की फिल्मों में अभिन्य भी किया।
उनकी आमदनी सिर्फ अपने लिए नहीं थी। उसमें बहुत-सों की भागीदारी थी। इसमें ताज भोपाली का नशा थाएक दोस्त की बेटी की पढ़ाई थी, रात में यार-दोस्तों की मेहमाननवाज़ी थी और पार्टी व सामाजिक सम्मेलनों के लिए चंदा भी था। उनका घर भोपाल के इकबाल मैदान के सामने शीशमहल की ऊपरी मंज़िल में था। नवाबी दौर में यह इमारत कई पहरों की निगरानी में थी, जब से फ़ज़ल ताबिश का निवास बनी, हर-भर के साहित्यकारों और पार्टी वर्करों की हुक्मरानी में थी। ताला-कुंडी से आज़ाद यह घर सबके लिए खुला था। फ़ज़ल घर में हों या न हों, ताहिरा ख़ॉ हों उनके दोस्तों में कोई भी किसी भी वक्त भी इसमें जा सकता था, रसोई में खाना खा सकता था, चाय बना सकता था, खा-पीकर आराम फ़रमा सकता था और तरो-ताजा वापस जा सकता था।
सहर फैला रही है अपने बाजू
मेरा साया सिमटता जा रहा है
फ़ज़ल ताबिश, शेरी , कैफ, ताज, दुष्यंत के बाद की नई पीढ़ी के शायर थे। वह भोपाल की तहज़ीबउसके मूल्यों का मेयार थे,यारों के यार थेमहफ़िल में बड़े मैख़्वार थे। उन्होंने अपनी ज़िंदगी का आखिरी क़हक़हा अपने शीशमहल के बाहर वाले कमरे में अपने दोस्तों की संगत में लगाया था। उस रात वह इतना हॅसे कि दूसरे दिन के लिए उनके पास हॅसने को कोई और क़हक़हा नहीं बचा था। इसलिए वह हमेशा के लिए ख़ामोश हो गए।
सुनो हम दरख़्तों से फल तोड़ने के लिए
उनके लिए मातमी धुन बजाते नहीं
सुनो प्यार के क़हक़हों वाले मासूम लम्हों में हम
ऑसुओं के दियों को जलाते नहीं
फ़ज़ल के साथ वह भोपाल हमेशा के लिए रुख़सत हो गयाजो विषेश तहज़ीब से जाना जाता था और अपनी शायरीतालाब और उदारता में पहचाना जाता था।
  

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