युवा संवाद मध्य प्रदेश का ब्लॉग

Archive for August, 2013

नरेन्द्र दाभोलकर को किसने मारा ?

राम पुनियानी
Couurtesy- www.p7news.com 
डाक्टर नरेन्द्र दाभोलकर की क्रूर हत्या (20 अगस्त 2013), अंधश्रद्धा व अंधविश्वास के खिलाफ सामाजिक आंदोलन के लिए एक बड़ा आघात है। पिछले कुछ दशकों में तार्किकता और सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने का काम मुख्यतः जनविज्ञान कार्यक्रम कर रहे हैं।  महाराष्ट्र में इसी आन्दोलन से प्रेरित हो ’‘अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’’ का गठन किया गयाजिसने डाक्टर नरेन्द्र दाभोलकर के नेतृत्व में जनजागरण का प्रभावी अभियान चलाया। कुछ लोग अंधश्रद्धा व अंधविश्वासों के खिलाफ उनके आन्दोलन से परेशानी का अनुभव कर रहे थे और इसलिए उन्हें कई बार जान से मारने की धमकियां मिलींजिनमें से कम से कम एक में कहा गया था कि उनका अंत वैसा ही होगा, जैसा कि गांधी का हुआ था। उनकी मृत्यु के बाद, ‘सनातन प्रभात’ नामक एक हिन्दुत्ववादी अखबार ने लिखा कि ‘‘हर एक को वही मिलता है जिसके वह लायक होता है‘‘। यह अखबार पहले भी डा. दाभोलकर के संबंध में विषवमन करता रहा है।
अंधश्रद्धा के पैरोकार स्वयं भी यह जानते थे कि उनके दावे खोखले हैं। उन्हें पता था कि उनका काला जादू तर्कवादी आन्दोलन के प्रणेता को नहीं मार सकेगा और इसलिए उन्होंने इस काम के लिए भाड़े के हत्यारों की सेवाएं लीं। दाभोलकर को हिन्दुत्व संगठन हिन्दू जनजागरण समिति’ से नियमित रूप से धमकियां मिलती रहती थीं। समिति ने अपनी वेबसाईट पर यह दावा भी किया था कि उसने हिन्दुओं के खिलाफ षड़यंत्र का पर्दाफाश कर दिया है। अपने प्रकाशनों में यह संस्था खुलेआम दाभोलकर के बारे में अशिष्ट व अत्यंत कटु भाषा का प्रयोग करती थी। ऐसे ही एक लेख में कहा गया था कि दाभोलकर गिरोह’ के सभी सदस्यों को हिन्दू धर्म के विरूद्ध काम करने के प्रायश्चित स्वरूप अपने चेहरों पर स्थाई तौर पर काला रंग पोत लेना चाहिए‘‘
दाभोलकर किसी धर्म या आस्था के विरूद्ध नहीं थे। वे तो केवल अंधभक्ति और अंधविश्वासों के विरोधी थेजिन्हें बाबागण और उनके जैसे अन्य लोग प्रोत्साहन देते हैं। ये बाबा अपनी प्रतिगामी सोच और गतिविधियों का समाज में प्रचार-प्रसार करते हैं। इनमें करनी‘ और भानामती’ नामक कर्मकाण्ड शामिल हैंजिसमें परालौकिक शक्तियों के नाम पर जादू किया जाता है। इसी तरहकुछ साधु-संत और मुल्ला-मौलवी भस्म देते हैंताबीज पहनाते हैंजादुई अंगूठियां देते हैं और लोगों के शरीर और मन पर कब्जा कर चुके भूत को भगाने का दावा भी करते हैं। इस तरह के बाबा हर धर्म में होते हैं। उनका यह दावा होता है कि वे परालौकिक शक्तियों से लैस हैं और वे अपने इस दावे का भरपूर प्रचार भी करते हैं। कुछ स्वयं को किसी संत या भगवान का अवतार बताते हैं और इस तरह ईश्वर में श्रद्धा रखने वाले आम लोगों का शोषण करते हैं। इनमें से कई काला जादू करते हैं और उसके नाम पर समाज में आतंक फैलाते हैं। दाभोलकर जिस कानून को बनाने की मांग बरसों से कर रहे थे-और जिसे उनकी हत्या के बाद महाराष्ट्र सरकार ने बनाया-उसमें इस तरह की गतिविधियों को अपराध घोषित किया गया है। दाभोलकर इस तरह की अतार्किक प्रथाओं का विरोध करते थे और इस कारण उन पर हिन्दू-विरोधी होने का लेबल चस्पा कर दिया गया था। यहां यह बताना मौंजू होगा कि जब यह विधेयक पहली बार चर्चा के लिए विधानसभा में प्रस्तुत किया गया था तब भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने इसका कड़ा विरोध किया था।
हिन्दू धर्म की राजनीति करने वाले इन संगठनों के अतिरिक्तअन्य पुरातनपंथी लोग भी उनके संगठन की गतिविधियों के खिलाफ थे। आस्था एक जटिल परिघटना है। निःसंदेहसमाज के एक तबके को उसकी जरूरत है। परालौकिक शक्ति में आस्थाकिसी पैगम्बर में विश्वास या किसी धर्म अथवा ईश्वर के नाम पर बनाई गई किसी संस्था पर श्रद्धालोगों को असमानताओं और दुःख-तकलीफों से भरी इस क्रूर दुनिया में जीने की भावनात्मक शक्ति देती है। इस मानवीय आवश्यकता से लाभ उठाने के लिए कई धर्म-उद्यमियों ने श्रद्धा को अंधश्रद्धा में बदल दिया है। वे पाखण्डों और कर्मकाण्डों पर जोर देने लगे हैं और इन कर्मकाण्डों का इस्तेमालसहज-विश्वासी लोगों का शोषण करने के लिए करते हैं।
अंधश्रद्धा और तर्कवाद के बीच का संघर्ष लंबे समय से जारी है। तर्कवाद का अर्थ हैहर विश्वास पर प्रश्न उठानाउसे सत्य की कसौटी पर कसना और अपने ज्ञान की परिधि में लगातार बढ़ोत्तरी करते रहना। आस्थाविशेषकर धार्मिक संस्थाओं’ के आसपास बुनी गई आस्थाकी शुरूआत होती है नियमोंविश्वासों और प्रथाओं को आंख मूंदकर स्वीकार करने से। हमें ऐसा बताया जाता है कि ये नियमविश्वास और प्रथाएं ऐसी हैंजिन पर प्रश्न उठाना ही मना है। उन्हें तो बिना किसी तर्क के स्वीकार करना होगा। बहुत से लोगों का व्यवसाय इसी तरह की प्रथाओं पर आधारित होता है और वे लगातार यह दावा करते रहते हैं कि वे ईश्वरीय शक्ति से लैस हैं। यह दिलचस्प है कि अधिकांश धर्म-संस्थापकों और पैगम्बरों ने उनके समय में प्रचलित मान्यताओंआस्थाओं और प्रथाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाए। और इस कारण उन्हें सत्ताधारियों के कोप का सामना भी करना पड़ा। मजे की बात यह है कि शनैः शनैः इन्हीं पैगम्बरों के आसपास पुरोहित वर्ग ने आस्था और परालौकिकता का जाल बुन दिया और उनके नाम पर अर्थहीन प्रथाएं स्थापित कर दीं। ये प्रथाएँ भी समय-समय पर बदलती रहीं हैं। इस सबका उद्देश्य यह था कि न केवल ज्ञान के क्षेत्र में यथास्थितिवाद बना रहे वरन् सामाजिक ढांचे में भी कोई बदलाव न आए। पुरोहित वर्ग-चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो-हमेंशा से सामाजिक यथास्थितिवाद का हामी रहा है और चाहता है कि लोग बिना कोई प्रश्न पूछेबिना कोई शंका व्यक्त किएधर्म की उसकी व्याख्या को स्वीकार करें और उसके बताए रास्ते पर चलें।
इतिहास गवाह है कि जिन लोगों ने तार्किक बातें कींउन्हें या तो अपनी जान गंवानी पड़ी या घोर कष्ट भुगतने पड़े। भारत में चार्वाक ने वेदों की परालौकिकता को चुनौती दी। उसे घोर निंदा का सामना करना पड़ा और उसकी लिखी पुस्तकों को जला दिया गया। यूरोप में कापरनिकस और गैलिलियो का पुरोहित वर्ग ने क्या हाल बनायायह हम सब को ज्ञात है। ब्रूनो और सरवाटस नामक वैज्ञानिकों ने यह कहा कि रोगदुनियावी कारणों से होते हैं न कि ईश्वरीय प्रकोप के कारण। यह कहने परपुरोहित वर्ग के इशारे परउन्हें जिंदा जला दिया गया। बात बहुत सीधी सी थी। अगर लोगों को यह समझ में आ जायेगा कि बीमारी बैक्टीरिया और वाइरस के कारण होती हैईश्वर के कोप के कारण नहींतो वे स्वस्थ होने के लिए पुरोहितों के पास जाना बंद कर देंगे। स्वभाविकतः इससे पुरोहित वर्ग की आमदनी और सामाजिक हैसियतदोनों कम होगी।
भारत में धर्मनिरपेक्षीकरणभू-सुधार और समाज पर पुरोहित वर्ग का शिकंजे ढीला करने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी। समाज पर पुरोहित वर्ग का दबदबा बना रहा। भारतीय संविधानवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात कहता है और नेहरू जैसे नेताओं ने आम लोगों में वैज्ञानिक समझ विकसित करने पर बहुत जोर दिया था। परन्तु धर्म के नाम पर राजनीति करने वाली ताकतों को यह मंजूर न था। वे वैज्ञानिकतार्किक सोच का लगातार विरोध करती रहीं और देश के प्राचीन इतिहास का महिमामंडन भी। अनिश्चितताओं और परेशानियों से घिरे आम लोगों को झूठे सपने दिखकर उनका शोषण करना पुरोहित वर्ग के लिए आसान था।
भारत में भी वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए कई तार्किकतावादी आन्दोलन चले परन्तु समाज पर उनका कोई विशेष प्रभाव न पड़ सका। सन् 1980 के दशक में साम्प्रदायिक राजनीति के उदय के साथअतार्किकता और अंधभक्ति की एक बड़ी लहर भारत पर छा गई। बाबा और आचार्य कुकुरमुत्तों की तरह ऊग आये। उन्होंने अपनी धार्मिक संस्थाएं खोल लीं और इनसे जमकर पैसा कमाने लगे। हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि किसी दिनबाबाओं का बिजनेस माडल भी एमबीए के विद्यार्थियों को पढ़ाया जायेगा। कई बाबाओं ने अन्य प्रकार के शारीरिक आनन्द भी उठाए। आसाराम बापू अभी हाल में इसी तरह के एक मामले में फंसे हुए हैं। कई बाबा इस श्रेणी के शारीरिक सुख का आस्वादन पहले भी कर चुके हैं। इन बड़े बाबाओं के अलावा हमारे देश में सैंकड़ों ऐसे छोटे-मोटे बाबा और पीर-फकीर हैं जो हवा से राख और सोने के आभूषण पैदा करने जैसे जादू दिखाते रहते हैं और इसे वे ईश्वर से अपनी नजदीकी का सुबूत बताते हैं। दाभोलकर और उनके संगठन के सदस्य इसी तरह के फरेबियों का पर्दाफाश कर रहे थे।
अंधश्रद्धा के पैरोकारों और पंचसितारा बाबाओं को विभिन्न राजनैतिक दलों और उनके नेताओं का समर्थन और सहयोग हासिल रहता है। इनमें से कुछ बाबा तो आरएसएस के स्थाई स्तम्भ हैं। अन्य राजनैतिक दलों के सदस्य भी इन फरेबी बाबाओं के भक्त हैं। साम्प्रदायिक तत्व इन बाबाओं का साथ देते हैं क्योंकि उसमें उन्हें अपना फायदा नजर आता है। सनातन संस्था ने भी दाभोलकर को हिन्दू विरोधी’ बताया था। इसी तरह का एक ठग बैनीहिम सार्वजनिक रूप से फेथ हीलिंग’ कार्यक्रम आयोजित किया करता था जिनमें विकलांगों और रोगियों को बिना किसी दवा के चंद मिनटों में ठीक करने का दावा किया जाता था।
दाभोलकर कई दशकों से अंधश्रद्धा निवारण कानून बनवाने के लिए संघर्षरत थे। परन्तु महाराष्ट्र सरकार ने उनके जीवन की बलि के बाद ही यह कानून बनाया। उन्होंने ऐसे आंकड़े इकट्ठे किए थे जिनसे यह जाहिर होता था कि काला जादू करने वालों की सबसे बड़ी शिकार महिलाएं होती हैं। वे हीरामोतीमूंगा आदि जैसे रत्नों और उनके तथाकथित जादुई प्रभाव के विरोध में अभियान शुरू करने वाले थे। इससे बड़ी संख्या में लोगों के व्यापारिक हित प्रभावित होते। यह दुःख की बात है कि अब ऐसा नहीं हो सकेगा। क्या अन्य राज्य सरकारें भी इसी तर्ज पर ऐसे कानून बनाएंगी जिनसे अंधश्रद्धाकाला जादूरत्नों आदि का समृद्ध व्यापार बंद हो सके या कम से कम उसके आकार में कमी आएक्या प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन उन लोगों की सुध लेंगे जो इन घिनौनी प्रथाओं का शिकार बन रहे हैं और समाज को तार्किक विचारतार्किक संस्कृति और तार्किक राजनीति की ओर ले जाएंगेहमारे देश ने विज्ञान के क्षेत्र में जबरदस्त प्रगति की है परन्तु यह दुःख की बात है कि जहां हम उन उपकरणों का इस्तेमाल कर रहें हैं जो विज्ञान की देन हैंवहीं हमारी मानसिकता में विज्ञान को स्थान नहीं मिला सका है। हम कम्प्यूटर तो इस्तेमाल करते हैं परन्तु दशहरे पर उसकी पूजा भी करते हैं और उस पर फूल भी चढ़ाते हैं। क्या दाभोलकर का बलिदानहमारे नीति निर्माताओं को इस बात का एहसास करा सकेगा कि लाखों इंजीनियर और हजारों वैज्ञानिक व डाक्टर पैदा करने वाला हमारा देश आज भी अंधविश्वासों व अंधभक्ति की चक्की में पिस रहा है। हमें विज्ञान और तकनीकी से लाभ उठाने में कोई संकोच नहीं हैं परन्तु हम वैज्ञानिक सोच को अपनाना नहीं चाहते।
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।) 

Who Killed Narendra Dabholkar?

Ram Puniyani

The brutal killing of Dr. Narendra Dabholkar (20th August 2013) is a big jolt to the social movement against blind faith and superstitions. During last few decades the tendency for promotion of rational thought parallel to social change came up as Popular Science movement. In Maharashtra it took shape in the form of a movement,Andh Shraddha Nirmoolan Samiti (Committee for Eradication of Blind faith), where it became a powerful campaign for popular awareness, under the leadership of Dr. Narendra Dabholkar. There were those who were uncomfortable due to Dr. Dabholkar’s work against blind faith and superstitions and so he started getting threats to his life. Before his death he got several threats, one of which said, they will give him the same fate as that of Gandhi. After his killing Sanatan Prabhat, a Hindutva ideology paper, which constantly spew poison against him, commented that ‘one gets what one deserves’.
The practitioners and supporters of blind faith surely know that their art is a hoax, were sure that their blind magic can’t kill the pioneer of a rationalist movement, so they did hire assassins to kill Dabholkar. He was recipient of regular abuses from the Hindutva organization, Hindu Janjagruti Samiti, on their web posted claims that they have exposed anti Hindu conspiracy. In their publications they put across abuses for him in gay abandon, one of which read, ‘Dabholkar’s group” should permanently make their faces black for their misdeeds against Hindu religion.”
As such Dabholakar was not against religion or faith. He strongly condemned the practices of blind faith and superstitions, promoted and practiced by Babas and their ilk, who proactively practiced and propagated retrograde practices.  Some of these practices like and Karni, Bhanamati are the ones’ in which magical rites are performed in the name of supernatural power. Some other practices are like offering of ash, talisman, charms etc. for the purpose of exorcism and to drive out evil spirits or ghosts. These Godmen and their types claim to be in possession of supernatural powers and advertise this claim. Many a times they claim to be reincarnation of a particular Saint or God, and this way they cheat the gullible and God-fearing simple folks. They do perform so called black magic and spread fear in society. The act which Dabholkar was campaigning for, which the Government adopted after his assassination, makes such practices as an offence under this act. Just a reminder that when this act was first brought up for discussion BJP-Shiv Sean combine strongly opposed the same. He was critical of these irrational practices, and for this he was labeled to be anti Hindu. 
Apart from these upholders of politics in the name of Hindu religion other conservatives were also against the activities carried out by his organization. Faith is a complicated phenomenon, true it is needed by a section of society. Faith in supernatural power, faith in institution built around the names of prophets and individuals operating in the name of some religion or God have to some extent provided an emotional support to many in this cruel World with gross deprivations and inequalities. Recognizing this weakness of humans many a religio-entrepreneurs have systematically converted the faith into blind faith, a series of rituals, acts, which are deliberately used to exploit the gullible.
The battle between these two tendencies is old enough. Reason on one side and faith on the other. Reason believes in questioning the existing beliefs and to keep going beyond the prevalent knowledge. Faith, particularly the one constructed around the ‘institutions of religion’ begins with unquestioning subservience to the prevalent norms, beliefs and rituals. Many individuals who go in to establish their enterprises around these rituals, claim to be having divine powers. Incidentally, most of the founders of religions, the prophets, had questioning mind and they questioned the existing norms, values and practices. It is precisely for this that many of them were tormented and punished by the powers that ruled. The clergy, which built institutions around the names of these prophets or supernatural powers, developed rituals in the names of these prophets. The clergy and their practices were most static. Such tendency promotes status quo not only of knowledge but also of social situations and relations.  Clergy promoted the social status quo and so demanded unquestioning loyalty to their interpretation of religion and social norms as dictated by them.
There are many incidents in the history, where those who came up with rational thought were not only killed but sometimes harassed to no end. We know the fate of Charvak in India, who questioned the supernatural authorities of Vedas, he was condemned, and his writings were burnt. In Europe, Copernicus and Galileo’s plight at the hand of clergy is another chapter, while the scientists like Bruno, Servatus who argued that diseases are due to Worldly reasons and not due to the wrath of God, were burnt alive by the machinations of clergy. The idea here was very simple, if people start understanding that the diseases are due to bacteria or other etiological factors, the earlier practices of pleasing God through the clergy for healing will come to a halt and clergy’s social power will decline. 
In India as the secularization process, the land reforms plus reduction of the hold of clergy remained incomplete, the power of clergy in social field continued. Indian Constitution talks of promotion of scientific temper and people like Nehru kept promoting the inculcation of this scientific temper. Meanwhile the political tendencies operating in the name of religion, kept opposing scientific, rational thinking and kept uncritically glorifying the ancient past, ancient practices cultivated by the clergy to exploit the gullible society, society in the grip of uncertainty and deprivation.
India did witness the rational movements to promote the scientific temper, but its impact in the society remained marginal. With the rise of communal politics from the decade of 1980, the blind faith took a massive leap with hoards of Babas and acharyas, setting up their religious enterprises, enterprises which probably turned out to be most profitable by any standard. One hopes that the business schools are able to calculate the returns on the investments in such enterprises some day. In addition many such Babas extracted the additional bonus of physical pleasures of another kind, the way currently Asaram Bapu is being accused of and so many of them have had their fill. In a crass manner many of the small and high level players also incorporated magical tricks like producing ash and gold from nowhere as their trademark of divine powers. It is these tricks which were being exposed by Dabholkar’s groups.
The practitioners of blind faith and these hoards of five-seven star babas, get their legitimacy and appreciation from leaders of different hues. While those coming from RSS stable are firmly with them at all the levels, even politicians from other tendencies also personally support and follow these tricksters, Babas, Godmen and their whole tribe. The communalists stand to support them ideologically the way Sanatan Sanstha, while abusing Dabholkar also talked of his work being ‘anti Hindu’! A similar trickster, Benny Hynn did public performances for faith healing, and there is no dearth of the ‘Baba Bangali’ series indulging in such trade.
It took Dabholkar’s sacrifice for Mahrashtra Government to pass and bill against blind faith for which Daholkar was struggling from decades. He had collected data that it is women who are the biggest victims of those practicing black magic. He had been talking of taking on the highly rewarding trade of gems and their magic powers, in due course. Alas, that was not to be! Will other state Governments follow suit and try to bring a control on the flourishing trade of blind faith, black magic and its ilk? Will the progressive social movement take up the cause of the major victims of these abominable practices and take the society forward to the path of rational thought, rational culture and rational politics, away from the trappings of the faith based blindness. While our ‘scientific establishment’ has made giant strides the scientific thinking still lags behind as science is being practiced mostly as an instrument and not as a way of life. That’s how in many of science and technology institutions, on Dussera day, computers are worshipped with flowers and by putting vermillion on the forehead of the monitors! Can sacrifice of Dabholar wake up our policy makers to such a serious lacuna in our teaching and practice of science? We seem to have liked the benefits of technology and have been undermining the scientific way of thought and practice, more so after the politics-nationalism has started wearing the cloak of religion.  

तर्कशीलता की मशाल

सुभाष गाताडे


गए साल मार्च की बात है, जब मुंबई के एक उपनगर के गिरजाघर में सलीब पर टंगी ईसा मसीह की प्रतिमा के पैर से टपक रहे जल ने तहलका मचा दिया था। हजारों की तादाद में वहां भीड़ जुटने लगी और ईसा मसीह के टपकते आंसुओंसे भावविह्वल होती नजर आई। मेले जैसा दृश्य बन गया। टीवी वालों ने इस चमत्कारका सजीव प्रसारण शुरू कर दिया। इंडियन रेशनलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष सनल एडमारूकु ने घटनास्थल पर जाकर मुआयना किया और अपनी पैनी निगाहों से यह पता करने में उन्हें वक्त नहीं लगा कि इस चमत्कारकी जड़ बगल के वॉशिंग रूम की निकासी में है, जहों से कैपिलरी एक्शन के जरिए पानी जीसस के पैरों तक पहुंच रहा है। (किसी ठोस पदार्थ की सतह पर किसी द्रव्यपदार्थ की हरकत, जो ठोस पदार्थ के परमाणुओं और द्रव्यपदार्थ के परमाणुओं के आकर्षण से निर्मित होती है, उसे कैपिलरी एक्शन कहते हैं। पेपर टॉवेल इसी सिद्धांत पर चलता है। )

बाद में एक लाइव टीवी कार्यक्रम में सनल एडमारूकु ने इस घटना को स्पष्ट करते हुए चर्च अधिकारियों पर चमत्कार की मार्केंिटंगकरने और भोले लोगों को बेवकूफ बनाने का आरोप लगाया। एक तीखी बहस चल पड़ी, जिसमें चर्च के पदाधिकारियों ने अपनी आस्था की दुहाई देते हुए सनल से माफी मांगने के लिए कहा। सनल के इनकार के बाद उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। पुलिस ने धार्मिक भावनाओं को आहत करने के नाम पर सनल के खिलाफ धारा-295 के तहत मुकदमा दर्ज किया और दिल्ली में उनके घर छापा डालने पहुंची। 

वर्ष 2011 में टीवी स्टूडियो के अंदर केरल युक्ति संघम के अध्यक्ष यू कलानाथन पर हमला हुआ था। वजह यह थी कि केरल के विख्यात पद््मनाभ मंदिर के तहखानों में रखी हुई अकूत संपदा के सार्थक उपयोग पर वे अपनी राय प्रकट कर रहे थे। कुछ साल पहले उत्तर भारत के एक चर्चित संत- जिनका हरियाणा और पंजाब की राजनीति में भी काफी दखल रहता है- के आश्रम में हुई यौन अत्याचारों की घटनाओं का खुलासा हुआ था। इस संत के खिलाफ मुहिम चलाने वाले पत्रकार छत्रपति पर कातिलाना हमला हुआ, जिसमें बाद में उनकी मौत हो गई। 

चाहे सनल पर दायर मुकदमा हो या कलानाथन पर हुआ हमला या छत्रपति जैसे पत्रकारों को जान देकर जिसकी कीमत चुकानी पड़ी हो, इस बात को आसानी से देखा जा सकता है कि सहिष्णु कहलाने वाले भारत की सरजमीं पर तर्कशीलता और बुद्धिवाद की पताका बुलंद करने वाले लोगों को किन खतरों से गुजरना पड़ता है। बीस अगस्त को पुणे में अंधश्रद्धा विरोधी आंदोलन के अगुआ डॉ नरेंद्र दाभोलकर की हत्या को इसी कड़ी में देखा जा सकता है।

अलसुबह टहलने के लिए निकलते वक्त़, जबकि ठीक साढ़े ग्यारह बजे की प्रेस-वार्ता तय थी- जहां उन्हें पर्यावरण-अनुकूल गणेश मूर्तियों के मसले पर बात रखनी थी- डॉ दाभोलकर ने यह शायद ही सोचा होगा कि ओंकारेश्वर पुल पर मौत उनका इंतजार कर रही होगी। पिछले पच्चीस वर्षों से अधिक वक्त से दाभोलकर अंधश्रद्धा के खिलाफ मुहिम में जुटे थे। उन्होंने डॉक्टरी छोड़ कर जन-जागरण के काम में अपने आप को झोंक दिया था। इस दौरान उन्हें तरह-तरह की बाधाओं, प्रताड़नाओं और हमलों का शिकार होना पड़ा। उनकी मृत्यु ने न केवल महाराष्ट्र के हर विचारशील, न्यायप्रिय व्यक्ति को अंदर से झकझोर दिया है बल्कि उसकी प्रतिक्रिया देश के अन्य हिस्सों में भी देखी जा सकती है। इस जघन्य घटना की प्रतिक्रिया राज्यसभा में भी हुई, जहां संदेह के घेरे में आई सनातन संस्था पर पाबंदी की मांग की गई।

दाभोलकर की हत्या के तत्काल बाद महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में स्वत:स्फूर्त प्रदर्शन हुए। हत्या के एक दिन बाद तमाम सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के आह्वान पर पुणे बंद रहा। जनाक्रोश से बचने और एक तरह से अपनी झेंप मिटाने के लिए कांग्रेस-राकांपा की सरकार ने अठारह साल से लंबित उस विधेयक पर अध्यादेश जारी करने का निर्णय लिया, जिसे पारित कराने के लिए दाभोलकर लंबे समय से सक्रिय थे। इस विधेयक का मकसद जादूटोना करने वालों और ऐसी प्रवृत्तियों पर रोक लगाना रहा है। 
महाराष्ट्र प्रीवेंशन ऐंड इरेडिकेशन आॅफ ह्यूमन सैक्रिफाइस ऐंड अदर इनह्यूमन इविल प्रैक्टिसेस ऐंड ब्लैक मैजिकशीर्षक इस विधेयक का हिंदू अतिवादी संगठनों ने लगातार विरोध किया है। पिछले दो साल से वारकरी समुदाय के लोगों ने भी विरोध के सुर में सुर मिलाया है। फुले-रानाडे-गोपाल हरि आगरकर-आंबेडकर की विरासत को लेकर अपनी मुहिम में मुब्तिला दाभोलकर को भी इस बात का अहसास रहा होगा कि साधारण जनों की आस्था का दोहन करने वाले जिन तत्त्वों की मुखालफत अपने संगठन महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समितिके बैनर तले कर रहे हैं (जिसकी दो सौ से अधिक शाखाएं महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक में हैं), वे कभी भी हमला कर सकते हैं। अपने स्वार्थों पर चोट पड़ती देख कर वे साजिश रच सकते हैं, विचारों के संग्राम में हारे हुए ये संकीर्णमना कभी भी हथियारों के प्रयोग तक जा सकते हैं। उन्हें जो आखिरी धमकी मिली, वह यह थी कि याद रखना हमने गांधीजी के साथ क्या किया था, और वही तुम्हारे साथ करेंगे। इसमें भी इन अतिवादियों ने इस बात का स्पष्ट संकेत दिया था कि वे किस हद तक जा सकते हैं और किन विचारों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। उनके बेटे हामिद ने मीडिया को बताया कि किस तरह उन्होंने उन्हें मिलने वाली धमकियों की परवाह नहीं की। 

हामिद के मुताबिक वे कहते थे कि उनका संघर्ष अज्ञान की समाप्ति के लिए है और उससे लड़ने के लिए उन्हें हथियारों की जरूरत नहीं है।उनके भाई का कहना था जब हम लोग उनसे पुलिस सुरक्षा लेने का आग्रह करते थे, तो वे कहते थे कि अगर मैंने सुरक्षा ली तो वे लोग मेरे साथियों पर हमला करेंगे। और यह मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता। जो होना है मेरे साथ हो।

पुणे के पास स्थित सतारा में जन्मे नरेंद्र दाभोलकर ने मिरज मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई की। सत्तर के दशक के प्रारंभ में समाजवादी युवजन सभाके सक्रिय सदस्य के तौर पर अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाले डॉ दाभोलकर विभिन्न सामाजिक आंदोलनों से जुड़े थे। श्रीराम लागू, नीलू फुले, रोहिणी हट्टंगडी जैसे सामाजिक सरोकार रखने वाले कलाकारों-नाटककारों को लेकर उन्होंने सामाजिक कृतज्ञता निधिके निर्माण के लिए महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में एक मराठी नाटक का आयोजन किया था, जिसका मकसद था महाराष्ट्र में पूर्णकालिक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं को नियमित आर्थिक सहयोग प्रदान करना। फिलवक्त यह कोष एक करोड़ रुपए तक पहुंचा है, जिसके माध्यम से पैंतालीस कार्यकर्ताओं को मदद दी जाती है।

दस साल डॉक्टरी करने के बाद दाभोलकर उन्हीं दिनों बाबा आढव की अगुआई में जाति उन्मूलन के लिए चल रही एक गांव एक पाणवठा’ (अर्थात एक गांव एक जलाशय) नामक मुहिम से जुड़े। इस दौरान हुए अनुभवों के कारण उन्होंने तय किया कि अंधश्रद्धा निर्मूलन पर अपने आप को केंद्रित रखेंगे। इसी मकसद से लगभग ढाई दशक पहले उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का गठन किया था। समाज में वैज्ञानिक चेतना फैलाने के काम को किस तरह एक आंदोलन की शक्ल दी जा सकती है, इसकी एक एक मिसाल उन्होंने कायम की है। 

समिति के कामों के प्रभाव का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अपनी किताब डिसएनचेन्टिंग इंडिया: आर्गनाइज्ड रेशनेलिज्म इन इंडिया’ (आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2012) में लेखक जोहान्स क्वैक भारत के तर्कवादी आंदोलनों पर जब निगाह डालते हैं तो इस बात का विशेष उल्लेख करते हैं कि महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति भारत का सबसे सक्रिय तर्कशील संगठन है। अतीत के अनुभवों से लेकर आज की गतिविधियों पर निगाह डालने वाली इस किताब में कई पेज समिति के कामों पर ही केंद्रित हैं। दाभोलकर के साथ साक्षात्कार से लेकर समिति के साधारण कार्यकर्ताओं से बातचीत का विवरण भी इसमें शामिल है।
प्रस्तुत किताब भारत के तर्कशील आंदोलन के अलक्षित इतिहास और उसकी तमाम शख्सियतों पर रोशनी डालती है। इसमें ज्योतिबा फुले, गोपाल आगरकर, शाहू महाराज, रामास्वामी नायकर, जवाहरलाल नेहरू, डॉ आंबेडकर, एमएन राय, गोपाराजू राव गोरा’, अन्नादुराई और कई अन्य विभूतियां शामिल हैं। इस अध्ययन में उन आंदोलनों को विशेष जगह मिली है जो महात्मा फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। 

इसकी वजह यही है कि संगठित तर्कवाद का एक महत्त्वपूर्ण आयाम पवित्रघोषित किए गए सामाजिक अन्याय को चुनौती देना रहा है। भारत के तर्कवादियों को यह अहसास था कि उन्हें पश्चिमी जगत का अंधानुयायी करार दिया जा सकता है; लिहाजा इससे बचने के लिए उन्होंने अपने आप को प्राचीन भारतीय भौतिकवाद से भी जोड़ा। 

समिति के कार्यकर्ता अक्सर राज्य के विभिन्न हिस्सों में जाते और तथाकथित चमत्कार दिखाने वाले बाबाओं को गिरफ्तार करवाते थे। जिन महिलाओं को डायन घोषित किया जाता था उन्हें इस लांछन और उत्पीड़न से मुक्त कराने का काम भी समिति के लोग करते थे। लोगों को वैचारिक तौर पर तैयार करने के लिए पत्रिका का प्रकाशन, व्याख्यानों, कार्यशालाओं का आयोजन भी किया जाता था। समिति की अगुआई में निर्मला देवी और नरेंद्र महाराज जैसों के खिलाफ भी आंदोलन चलाया गया, जिसके चलते उनके समर्थकों के साथ तीखा विवाद हुआ था।

वर्ष 2000 में अपने संगठन की पहल पर दाभोलकर ने राज्य की सैकड़ों महिलाओं की रैली अहमदनगर जिले के शनि शिंगणापुर मंदिर तक निकाली, जिसमें महिलाओं के लिए प्रवेश वर्जित था। रूढ़िवादी तत्त्वों और शिवसेना-भाजपा के कार्यकर्ताओं ने परंपरा और आस्था की दुहाई देते हुए महिलाओं के प्रवेश को रोकना चाहा, उनकी गिरफ्तारियां भी हुर्इं और फिर मामला मुंबई उच्च न्यायालय पहुंचा और उसकी सुनवाई पूरी होने के करीब है। वर्ष 2008 में दाभोलकर और अभिनेता-समाजकर्मी डॉ श्रीराम लागू ने ज्योतिषियों के लिए एक प्रश्नमाला तैयार की और कहा कि अगर उन्होंने तर्कशीलता की परीक्षा पास की तो उन्हें पुरस्कार मिल सकता है। अभी तक इस पर दावा ठोंकने के लिए उनमें से कोई भी आगे नहीं आया। 
प्रतिक्रियावादी तत्त्व भले ही दाभोलकर को मारने में सफल हुए हों, लेकिन जिस तरह से उनकी हत्या हुई है उसने तमाम नए लोगों को भी दिमागी गुलामी के खिलाफ जारी इस व्यापक मुहिम से जोड़ा है। तर्कशीलता और बुद्धिवाद के लिए हुई दाभोलकर की शहादत हमारे सामने कई नए सवाल खड़े करती है। हमारे इर्दगिर्द अतार्किकता का उभार क्यों दिख रहा है? आखिर किस वजह से तर्कशीलता और असहमति पर आक्रमण विभिन्न तरह के धार्मिक कट््टरपंथियों के एजेंडे में सिमट जाता है? आखिर क्यों मीडिया अतार्किकता को बढ़ावा देने में मुब्तिला है? क्यों एक पॉप आध्यात्मिकताएक विशाल उद्योग में तब्दील हो गई है? आज सेक्युलर होने के क्या मायने हैं? अतार्किकता की इस बढ़ती लहर का मुकाबला करने के लिए हमारे पास किस तरह के बौद्धिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, राजनीतिक संसाधन मौजूद हैं?

महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों पर हुई रैलियों में तमाम बैनरों-पोस्टरों में एक छोटे-से पोस्टर ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, जिस पर लिखा था आम्ही सगले दाभोलकर’ (हम सब दाभोलकर)। चार्वाकों के इस अनूठे वारिस को इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या हो सकती थी!



http://www.jansatta.com/ से साभार 

Dabholkar Is Done A Gandhi -Anand Teltumbde

“You never see animals going through the absurd and often horrible fooleries of magic and religion. . . . Only man behaves with such gratuitous folly.” 
Aldous Huxley

Maharashtra had one more shame added to a long list of shames it accumulated through history. On 20 August it killed Dr Narendra Dabholkar, a committed rationalist who had personified the struggle against superstition and humbug that exists in the state, which never tires calling itself progressive and claiming the legacy of Phule and Ambedkar. It comfortably forgets that the objective facts completely contradict this claim. It is the state that abused Savitribai and Jotiba Phule, humiliated Dr Ambedkar, begot the poisonous outfits like Rashtriya Swanyamsevak Sangh, the Hindu Mahasabha, the Samarasata Manch and innumerable such others; it contributed staunch social reactionaries that culminated in making of Nathuram Godse who gunned down Gandhi, that trend extends down to Abhinav Bharat in the twenty first century that is credited with masterminding and executing a series of terrorist acts. It has a unique distinction of having had a Brahmanist regime in history that tied a pot round the neck and a broom to the behind of Dalits. It still contributes significantly to the national statistics of atrocities against Dalits with shameful markers like Khairlanji. It does not realize that it is because of its deep drawn reactionary character Phule and Ambedkar had to take birth on its land. It is abiding shame that while it flaunts them as its ideals, it continues with its reaction and keeps on killing its progressive sons and daughters like Narendra Dabholkar.
Dr Dabholkar was not a kind of person who would provoke one to commit his murder. After practicing his medical profession for little over a decade, he devoted himself to the task of removing superstitions from the society under the aegis of the Maharashtra Andha Shraddha Nirmulan Samitii (Maharashtra Blind Faith Eradication Committee), of which he was the founder president. He always emphasized that he was not against any faith but the superstitions practiced in the name of faith. He wrote books and edited the well known magazine Sadhana started by a legendary socialist Sane Guruji. He was a liberal who avoided extremity in thought and action but remained resolute about his mission. A man of integrity, he toured all over the state addressing people and conducting workshops for youth educating them against the evil of superstitions with missionary zeal. He spoke unsparingly against the buwa s (mendicants claiming to perform miracles) and other practitioners of black magic who cheated and defrauded people of their hard earned monies. While many of them were in a petty category living off the offerings from people, some were bigwigs like Asaram Bapu and Nirmal Baba and others of their ilk, who had huge following and huge wealth. Their programmes are beamed on our national television channels across the country. And of course behind them are the institutions of Hindu Rashtra, the strategic multi-fanged outfits of the Sangh Pariwar, with their mighty propagandist infrastructure comprising websites, electronic media and multi-lingual press.
An uncompromising rationalist Dabholkar was against castes. He had taken part in agitations like the movement protesting for the equality of Dalits , against caste discrimination , atrocities and naming the Marathwada University after Babasaheb Ambedkar. He had recently come out in open heavily against it in a case of honour killing in Nashik. The shocking case related with a father belonging to Joshi – a nomadic tribe (NT) (it shows, in plains the tribes have been fully casteized), killing his nine-month pregnant daughter for marrying out of the caste at the instance of the caste panchayat (a governing council of caste). The evil practice was exposed by a letter written by one Anna Hingmire, also of the Joshi caste, to the police commissioner on July 3, 2013, complaining against the Jat Panchayat of his caste for harassing him and his family as his daughter had married a boy of another caste. No one would have had any inkling about this heinous practice all these years if this murder and subsequent investigation had not exposed it. It is not a matter of a particular caste; the caste panchayats have always been operational in some form of the other in every caste with varying degree of power. There has been notable resurgence in them during the last two decades of globalization, not only in the Jatland of Haryana or Hindi heartland of UP and Bihar but also elsewhere and surely in Phule-Ambedkar’s Maharashtra. It was natural that Dr Dabholkar, of all the progressively people, came vehemently against it.
Naturally, he was targeted by the orthodox elements. The Hindu Sanatan Sanstha (organization of the orthodox Hindus), along with the entire Sangh Pariwar with its extensions like Shiv Sena, and of course the persons and establishments which thrived on the gullibility of people were against him. The Hindu Sanatan Sanstha has been in forefront in this virulent opposition. It carried a tirade against him in its organ called Sanatan Prabhat, published in many languages. This paper had not only written venomously against Dabholkar but also prominently published Dabholkar’s photo crossing it with bold red, signifying his imminent elimination. What could be the more direct threat than this! It has never hidden its hatred for Dabholkar even in the wake of his murder. Just the next day (21 August) when the entire state was struck with shock and grief, it commented in its organ that it was the grace of god that Dabholkar met with such a death. Invoking Gita, it wrote, “one who is born is sure to die; the birth and death are according to one’s destiny. Everybody gets the fruit of his karma (actions). Instead of dying of illness in a bedridden state or dying a painful death after an operation, the death Dabholkar met with was a grace of god.” In a press conference held in Mumbai by the Sanatan Sanstha to declare that it did not have any connection with the murder, its spokespersons were absolutely unapologetic and unrepentant about Dabholkar’s death. These worthies, on the contrary declared that they would publish many more photos with red cross as Dabholar’s, directly implying that they would carry out elimination of many people who walk the path Dabholkar did. Sanatan Prabhat carried an illustration showing a mighty elephant representing the Sanatan Sanstha marching ahead ignoring a fellow representing its opposition. It exhorted its readers to stop those who are heaping accusations on the religion-loving Sanatanis.
The other group opposed to Dabholkar comprised all those who had made exploiting gullibility of masses as their profession. It included quasi-begging pedestrians ranging from jogis and joginis who carried gods and goddesses on their heads and asked offerings from people to fortune foretellers, who sold their service at paltry fees. But it also included individuals like Asaram Bapus and Nirmal Babas, who have effectively institutionalized themselves into a big business. They have huge following, money and protection from powerful. They address their followers on several television channels across the country. For instance, Nirmal baba whom Dabholkar had taken on recently, (see his speech: Nirmal Baba: Shodh ani Bodh (Nirmal Baba: Enquiry and Lessons) on YouTube) ran his paid programme, Nirmal Darbar broadcast by approximately 40 different television channels including such biggies as AXN, TV Asia, Star News, SAB TV selling people divine ‘ kripa ‘ (blessings) as antidote or solution to their problems. His Samagam meetings had tickets for Rs. 2000 . Most of these Babas having dubious histories were caught many times with criminal acts ranging from defrauding people to sexual misconduct with their female followers (as I write, Asaram is being accused by a 16-year old girl of raping her) but such is their power that they are rarely touched. Not many people could muster courage to speak against them, leave apart carrying a public campaign obviously for the fear of consequences. Everyone knew that these Babas could go to any extent, murder being the minor matter, to save their thriving empire of billions. Dabholkar, in his imitable way dared them.
Dabholkar wanted an Act –Maharashtra Andhashraddha Nirmulan Bill (Eradication of superstitions Bill) be passed and accordingly submitted a draft created by him in the late 1990s. The bill has had a controversial history and has gone through several drafts and 29 amendments in the last decade. It was first put up before the cabinet for discussion in 2003 and after its nod, was tabled in the Assembly in April 2005. It was surprisingly opposed by the treasury benches itself. After diluting some of its provisions as indicated by the Assembly and by the discussions with more than 100 MLAs, the revised draft was tabled again to the state Assembly, which now passed it but it got stuck in the Legislative Council. The latter decided to send it to the joint select committee, which held four meetings and invited suggestions and objections from the public. A whopping 1.17 lakh responses were received; 38887 against and 78869 in favour. Since the government was dissolved after the 2009 elections, the bill had lapsed and had to be again put up before the cabinet in July 2011, now in a substantially diluted form. After the cabinet clearance it was tabled before the Assembly in August this year and had not yet come for the discussion. In process, the original Andhashraddha Nirmulan Bill has become the Anti-Jaadu Tona Bill (Anti-Black Magic Bill) after providing for all kinds of misgivings of opponents, but still it was opposed by the Hindu extremist organizations across the board and the warkari sect (reportedly as incited by the Hindutva forces), which feared that it would adversely impact their religious customs and traditions. While Dabholkar allayed these fears by saying that there was not a single word about God or religion in the entire bill; the freedom of worship or practicing religion could not be taken away by anyone as they were enshrined in the Indian Constitution, no such rationale would work with the extremist elements that bayed only for his blood.
There has been a massive turn out of people in protest all over Maharashtra against this ghastly murder. People at many places booed away politicians and even heckled the chief Minister, Prithwiraj Chavan when he customarily went to pay homage to Dabholkar at his home in Satara. People demanded the bill for which Dabholkar struggled for 18 long years be passed immediately. As a damage control exercise, the government decided to take out an Anti-Jaadu Tona ordinance to enforce the provisions of the bill. The ordinance has always been the easy way in our democracy but when it comes for ratification before the Assembly, it is unlikely that it would be passed as hinted by the BJP, which expressed its opposition to the ordinance even in the heat of the moment. The opponents like Hindu Janajagruti Samiti and Sanatan Sansthan argue that the existing laws are adequate for taking action against the offences listed in the bill. Another argument they make is that the number of superstitions-related crimes committed is minimal and proudly cite that during the last five years, only 17 cases were registered in Mumbai. These arguments themselves indicate the need for a special Act to tackle these peculiar crimes which tend to filter out of the IPC net.
Who killed Dr Narendra Dabholkar may remain possibly an unsolved riddle like who killed Hemant Karkare and like rather numerous other such earlier cases despite the Maharashtra government exhibiting its keenness in this case to catch the culprits by announcing a Rs 10 lakh prize to anyone who provides information on them. As I write more than 24 hours have already passed and there is no clue to the police as to who killed him. Aren’t there really any clue? Even a casual reader of this article can get sufficient clue as to who are behind the culprits. The finger behind the trigger might belong to anyone, but there is not much doubt whose brain has been behind it. Can the people who have directly crossed his picture in public view implying his imminent elimination not be the suspects? Can Nirmal Baba or Asaram Bapu or any such bigwig against whom Dabholkar spoke not be the possible subjects for interrogation? Can the Jat Panchayat kingpins not be in the eye of suspicion? No murder investigation may be as lucky as to have as few and concrete clues as in this case. In any other case, the police would have rounded up all kinds of people, thrashed them and extracted leads in process. Imagine, for instance some Hindu Baba was killed. Without even batting an eyelid, police would round up dozens of Muslim boys and unleash horror on them. Even in this case they might get some Sayed or Bashir as the ones who pulled the trigger on Dabholkar.
Dr Narendra Dabholkar, as I personally knew him, was a clear-headed person who knew what he was doing. He had set a modest goal for himslef, to make the society superstition free and imbibe scientific outlook, which he considered prerequisite for any radical change. He pursued it with exemplary commitment and zeal. To my misgivings that there was only a thin line difference between faith and blind faith or that an Act might not eradicate a pervasive religio-cultural and social evil that is reinforced further with increasing economic crisis of living for the masses making them increasingly vulnerable, he would counter with a simple sentence that a beginning had to be made and that he neither thought of nor aimed at any revolution as I did. He was unlike Gandhi in many ways but still sounded like one. Right since he began his social life in early eighties, he faced several threats and even physical attacks but he rejected police protection. According to the Times of India, he had stated, “If I have to take police protection in my own country from my own people, then there is something wrong with me, I’m fighting within the framework of the Indian constitution and it is not against anyone, but for everyone.” His Hindutva opponents however did not share the dilemma and were determined to make him a Gandhi. The assassins’ bullets seem to have done it for them. The only difference is that we may never get hold of Nathuram!

Dr Anand Teltumbde is a writer, political analyst and civil rights activist with CPDR, Mumbai. E-mail: tanandraj@gmail.com

शहीद डॉ डाभोलकर पर डॉ अनन्त फड़के

Courtesy-http://www.thehindu.com

डॉ डाभोलकर सिर्फ अंध विश्वास के खिलाफ ही सक्रिय नहीं थे हांलाकि उनके मिशन का यह प्रमुख हिस्सा था। सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों में एक तरुण समाजवादी के रूप में वे समाजवादी युवजन सभा से जुड़े और कई सामाजिक आन्दोलनों से उनका सरोकार बना। म्रुट्यु पर्यन्त यह सरोकार बना रहा । सामाजिक कामों में रुझान रखने वाले रंगकर्मियों के एक समूह में उत्साह भरने का काम उन्होंने किया।इन रंगकर्मियों में डॉ श्रीराम लागू,नीलू फुळे,रोहिणी हटंगड़ी प्रमुख थे। डॉ डाभोलकर ने इस टोली के महाराष्ट्र में सौ स्थानों पर नाटक आयोजित किए। टिकट और चन्दे से एक कोष बना- सामाजिक कृतज्ञता निधि। कोष से पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ताओं को छोटी-सी राशि मानदेय के रूप में दी जाती है । शुरुआत में पच्चीस लाख रुपए एकत्रित हुए।अब यह कोष एक करोड़ से ऊपर का हो गया है तथा इससे महाराष्ट्र ४५ प्रगतिशील कार्यकर्ताओं को सहयोग दिया जाता है । अमेरिका में रहने वाले प्रगतिशील भारतीयों द्वारा निर्मित कोष से दिए जाने वाले महाराष्ट्र फाउन्डेशन पुरस्कारको चलाने में भी उनकी अहम भूमिका रही है।
साने गुरुजी द्वारा स्थापित समाजवादी पत्रिका साधनाके वे संपादक थे। वे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के कबड्डी खिलाड़ी रह चुके थे तथा उन्हें अनेक स्वर्ण पदक तथा छत्रपति क्रीड़ा पुरस्कारसे नवाजा गया था।
उनके द्वारा स्थापित अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति महाराष्ट्र की सर्वोत्तम प्रगतिशील सक्रिय संस्थाओं में से एक है। महाराष्ट्र भर में इसकी २०० शाखाएं हैं । अब्रहाम कोवूर को जिन को जिन अर्थो में तर्कवादी माना जाता है वैसे वे नहीं थे। अन्य बुद्धिवादियों की तरह वे नास्तिकता का उपदेश नहीं देते थे तथा हिन्दू देवी देवताओं का उपहास नहीं करते थे हांलाकि वे धर्म की आलोचना करते थे। अंध विश्वास की समाजिक-आर्थिक जड़ों की बाबत उनकी एक स्पष्ट समझ थी। वे हमेशा व्यापक सामाजिक बदलाव के लिए सक्रिय रहे। अंध श्रद्धा निर्मूलन समितिने भी जाति प्रथा के नाश पर ध्यान केन्द्रित करना शुरु कर दिया था। अन्तर्जातीय विवाह करने की वजह से एक पिता द्वारा अपनी बेटी की जघन्य हत्या के बाद उनके संगठन ने इस मुद्दे को शिद्दत के साथ उठाया।
गत १४ वर्षों से डाभोलकर अंध विश्वास विरोधी कानून लाने के लिए अभियान छेड़े हुए थे।धर्म के नाम पर धोखाधड़ी,फर्जीवाड़ा और बर्बर कृत्यों को रोकने के लिए इस कानून में प्रावधान का प्रस्ताव है। सत्ताधारी दल का यह दिवालियापन है कि कई बार वादा करने के बावजूद भगवा ब्रिगेड के थोड़े से दबाव के आगे वे झुक जाते रहे हैं और मामला टलता आया है । इन पार्टियों के भीतर भी जो नई पौध आई है उनमें से कई खुद बाबाओं की शरन में रहते हैं।इनमें पार्टी को चन्दा देने वाले धन पशु भी शामिल हैं। डाभोलकर इन बाबाओं को भी निशाने पर नहीं ले रहे थे सिवाए इसके कि उनके द्वारा किए जा रहे फर्जीवाड़े,धोखे और बर्बर कृत्यों पर चोट करते थे। सामाजिक-राजनैतिक संस्कृति में आई गिरावट तथा भगवा ब्रिगेड दिन पर दिन बढ़ती असहिष्णुता के कारण किसी पागल ने फासिस्ट ताकतों के समर्थन से इस जघन्य कृत्य को अंजाम दिया होगा। मुझे पता नहीं कि इसका मोदी की लोकप्रियता से कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं।
डॉ डाभोलकर अत्यन्त कुशल और सक्रिय संगठनकर्ता के रूप में जाने जाते थे। वे बहुत स्पष्टता के साथ अपने तर्क रखते थे जिससे उनकी बात ग्राह्य हो जाती थी। किसी भी बहस के दौरान वे अपना मिजाज स्थिर रखते थे। उन्होंने अपनी पत्नी डॉ प्रभा के साथ मिलकर दस वर्षों तक डॉक्टरी की। १९८२ से वे पूर्ण कालिक कार्यकर्ता बन गए। गत बत्तीस वर्षों से हफ्ते में दो दिन वे अपने गृह नगर सतारा में रहते थे,दो दिन साधनाके संपादन के लिए पुणे में रहते थी तथा बाकी के दिन महाराष्त्र भर में व्यापक दौरे के लिए लगाते थे।
युवा डोक्टरों और प्रगतिशील सामाजिक कार्यकर्ताओम के लिए डाभोलकर एक आदर्श बन गए थे। मुझे अचरज नहीं हुआ जब उनकी हत्या की निन्दा के लिए आयोजित रैली में  २०० युवा जुटे ।इनमें करीब ५० छात्र सरकारी मेडिकल कॉलेज के थे। इसके लिए एस एफ आई तथा कुछ अन्य छात्र संगठन धन्यवाद के पात्र हैं जो उनके बीच सक्रिय हैं । किसी बड़े सामाजिक मुद्दे पर मेडिकल छात्रों का जुटना मैंने इसके पूर्व नहीं देखा है। कॉलेज में पढ़ने वाले इन तरुणों में आई जागृति आशा का लक्षण है।इनमें से कई उच्च अथवा मध्य वर्ग व जातियों के हैं।
स्वास्थ्य के प्रश्न पर वे अधिक सक्रिय न थे।फिर भी वे हमारे सम्पर्क में रहते थे।तीन साल पहले हमने जब मरीजों के हक पर सम्मेलन आयोजित किया था तो उन्होंने उसकी तारीफ की थी। पिछले कुछ महीनों से उन्होंने अंध श्रद्धा निर्मूलन समितिकी पत्रिका फिर से छापनी शुरु की है।स्वास्थ्य नीति पर मेरे कुछ मराठी लेख उन्होंने उसमें छापे हैं।
पिम्परी और चिंचवड पुणे के औद्योगिक उपनगर हैं। अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति की इनकी शाखा के २० वर्ष पूरे होने के मौके पर उन्होंने मुझे अतिथि वक्ता के रूप में बुलाया था। सभा स्थल तक पहुंचने के लिए हमने आधा घण्टे साथ-साथ यात्रा की थी। हमारी बातचीत में उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अंध श्रद्धा निर्मूलन समितिको अपने काम का दाएरा व्यापक करना चाहिए। एक फर्जी डॉक्टर का पर्दाफाश उनके आखिरी योगदान में से होगा।इस मामले को वे मन्त्रालय तक ले गए थे। उनका बेटा हामिद तर्कवादी ,सामाजिक रुझान वाला मनोचिकित्सक है तथा अपने सहमना साथियों के साथ नशा उन्मूलन के मुद्दों पर काम करता है। डॉ डाभोलकर ने अपने समूह के नेताओं की जो दूसरी पीढ़ी तैयार की है उसने संकल्प लिया है अंध विश्वास विरोधी कानूनके लिए अभियान को वे जारी रखेंगे।
निश्चित तौर पर हमने महाराष्ट्र के उत्कृष्टम प्रगतिशील नेता-कार्यकर्ता में से एक को खो दिया है।यह अपूरणीय नुकसान है।
अनन्त फड़के

http://samatavadi.wordpress.com से साभार 

आरक्षण’ के खिलाफ ‘योग्यता’ का लचर तर्क

-सत्येंद्र रंजन

“…भारतीय समाज में अवसरों को सीमित करने वाले जो पहलू हैं, उनमें जाति प्रमुख है। इसके कारण करोड़ों लोग शिक्षा एवं रोजगार में समान अवसर पाने से वंचित रह जाते हैं। आरक्षण की अवधारणा इसी सामाजिक हकीकत को ध्यान में रखते हुए विकसित हुई। यह समझना कठिन है कि आखिर न्यायपालिका इसे नजरअंदाज कर देती है। विडंबना ही है कि जिस सिद्धांत को जाति-व्यवस्था को कमजोर करने के लिए संविधान में शामिल किया गया, उसे समाज का प्रभु-वर्ग जातिवाद बढ़ाने का कारण मानता है।…”

स्टिस अल्तमस कबीर भारत के प्रधान न्यायाधीश पद से रिटायर होने के पहले दो ऐसे न्यायिक फैसलों में सहभागी बने, जिनको अगर साथ लेकर न्यायपालिका के सामाजिक दर्शन पर विचार किया जाए, तो न्याय एवं अवसर की समानता का कोई समर्थक बेचैन हो सकता है। जस्टिस कबीर की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में अति-विशेषज्ञता (सुपर-स्पेशियलिटी) स्तर पर आरक्षण को खारिज कर दिया। इसके लिए इस बेंच ने मंडल मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को आधार बनाया, जिसमें कहा गया था कि कुछ मामलों में सिर्फ योग्यता (मेरिट) को ही महत्त्व दिया जाना चाहिए। जस्टिस कबीर की अध्यक्षता वाली बेंच ने टिप्पणी की- आरक्षण की अवधारणा में ही मध्यम प्रतिभा को महत्त्व मिलना अंतर्निहित है। 

उधर न्यायमूर्ति कबीर, जस्टिस विक्रमजीत सेन और जस्टिस अनिल आर. दवे की खंडपीठ ने 2-1 के बहुमत से देशभर के मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए साझा प्रवेश परीक्षा आयोजित करने की हुई शुरुआत को अवैध ठहरा दिया। इस फैसले से असहमत न्यायमूर्ति दवे ने कहा कि अगर साझा परीक्षा के आधार पर दाखिला मिले तो शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय अनैतिक और धन को सर्वोपरि मानने वाले व्यापारियों के भ्रष्ट आचरणों पर रोक लग सकती है। मगर वे अल्पमत में थे। आलोचकों ने ध्यान दिलाया है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से छात्रों और मरीजों के अलावा बाकी सबको लाभ होगा। साझा परीक्षा होने पर छात्र अलग-अलग कॉलेजों के लिए अलग प्रवेश परीक्षा देने से बच जातेदेश भर में दाखिले का समान मानदंड लागू होता और कैपिटेशन फीस पर रोक लगतीजो अब कई जगहों पर करोड़ रुपयों में वसूली जा रही है। यह जानकर आप चिंतित हो सकते हैं कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों से पास हुए डॉक्टरों में तकरीबन 20 फीसदी ऐसे होते हैंजिनका वहां दाखिला योग्यता के आधार पर नहीं हुआ होता है। ये लोग धन के जोर से मैनेजमेंट कोटा की सीटें खरीद कर डॉक्टर बन जाते हैं। हैरतअंगेज है कि आरक्षण के कारण कथित रूप से मध्यम प्रतिभाओं के आगे बढ़ने से चिंतित सुप्रीम कोर्ट को धन के जोर से आगे बढ़ने वाली अयोग्यता से कोई परेशानी नहीं हुई। बहरहाल, इन दोनों मामलों ने मौजूदा समाज में अंतर्निहित विषमता और विशेष अवसर के सिद्धांत के संदर्भ में योग्यता बनाम अयोग्यता की बहस को फिर से प्रासंगिक कर दिया है।

मुद्दा यह है कि क्या उच्च शिक्षा संस्थानों तक पहुंच एवं वहां सफलता सिर्फ योग्यता से तय होती रही है?क्या योग्यता सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से निरपेक्ष कोई चीज है? अगर इंजीनियरिंग संस्थानों के एक हालिया आंतरिक विश्लेषण पर गौर करें तो हमें इन सवालों के जवाब ढूंढने में मदद मिल सकती है। 2012 में इंजीनियरिंग कॉलेजों के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) में भाग लेने वाले छात्रों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के इस अध्ययन सामने आया कि इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए संपन्न पृष्ठभूमि और बड़े शहरों में निवास- ये दो सबसे प्रमुख तत्व हैं। कोचिंग की सुविधा और अनुकूल पारिवारिक पृष्ठभूमि हो तो काम और आसान हो जाता है। यानी अगर परिवार में पहले से कोई डॉक्टर या इंजीनियर या अन्य उच्च प्रोफेशनल हो, तो उसका लाभ अगली पीढ़ी को मिलता है। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जो बात इंजीनियरिंग कॉलेजों के लिए सच है, वह अधिकांश उच्च तकनीकी शिक्षा- बल्कि तमाम शैक्षिक क्षेत्रों पर भी लागू होती है। 

इस अध्ययन के मुताबिक 2012 में 5,06,484 छात्रों ने जेईई में हिस्सा लिया, जिनमें से 24,112 सफल रहे। सफल छात्रों में लगभग आधे सिर्फ 11 शहरों के थे। जहां महानगरों में रहने वाले जहां 5.8 प्रतिशत छात्र सफल हुए, वहीं छोटे शहरों के 4.2 और देहाती इलाकों के सिर्फ 2.7 फीसदी छात्र ही पास हो सके। आमदनी के लिहाज से जिन परिवारों की वार्षिक आय 4.5 लाख रुपए से ज्यादा है, उनके 10.3 फीसदी छात्र पास हुए, जबकि 1 से 4.5 लाख की बीच आय वाले परिवारों के 4.8 प्रतिशत और एक लाख रुपए से कम सालाना आमदनी वाले परिवारों के मात्र 2.6 फीसदी छात्र ही उतीर्ण हो सके। फिर जहां प्रवेश परीक्षा में शामिल छात्रों में 20 प्रतिशत को कोचिंग की सुविधा मिली थी, वहीं जो पास हुए उनमें ऐसे छात्रों का हिस्सा लगभग 50 फीसदी था। इन आंकड़ों के आधार पर क्या यह कहना गलत होगा कि योग्यता असल में सामाजिक-आर्थिक अवसरों से तय होती है और बहुत से साधन संपन्न छात्र सिर्फ इसलिए सफल हो जाते हैं, क्योंकि उनके प्रतिद्वंद्वी छात्रों को उनकी तरह सुविधाएं और अवसर नहीं मिल पाते हैं?

भारतीय समाज में अवसरों को सीमित करने वाले जो पहलू हैं, उनमें जाति प्रमुख है। इसके कारण करोड़ों लोग शिक्षा एवं रोजगार में समान अवसर पाने से वंचित रह जाते हैं। आरक्षण की अवधारणा इसी सामाजिक हकीकत को ध्यान में रखते हुए विकसित हुई। यह समझना कठिन है कि आखिर न्यायपालिका इसे नजरअंदाज कर देती है। विडंबना ही है कि जिस सिद्धांत को जाति-व्यवस्था को कमजोर करने के लिए संविधान में शामिल किया गया, उसे समाज का प्रभु-वर्ग जातिवाद बढ़ाने का कारण मानता है। जबकि भारतीय समाज में आज भी जातिवाद की परंपरागत जकड़न कितनी गहरी है, यह किसी भी सामाजिक व्यवहार में देखा जा सकता है। वैवाहिक विज्ञापनों का अध्ययन कर कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के तीन अनुसंधानकर्ता हाल में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जो लोग वैवाहिक विज्ञापनों में जाति की सीमा नहीं लिखने का खुलापन दिखाते हैं उनमें भी अधिकांश की प्राथमिकता पहले अपनी जाति में ही जीवनसाथी चुनने की होती है। इस क्रम में एक मैट्रीमोनियल वेबसाइट द्वारा दी गई यह जानकारी महत्त्वपूर्ण है कि जो अपने विज्ञापन में जाति की सीमा नहीं लिखते हैं, उनमें 90 फीसदी लोग इश्तहार में अपनी जाति का उल्लेख जरूर कर देते हैं। पिछले राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण से सामने आया था कि भारत में अंतर-जातीय विवाहों की संख्या में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। यह संख्या कुल विवाहों के 10 प्रतिशत पर सीमित है। इन 10 फीसदी में अधिकांश विवाह वो हैं, जिन्हें प्रेम विवाह की श्रेणी में रखा जाता है।

प्रश्न यह है कि आखिर जज इस सामाजिक यथार्थ से अनजान क्यों बने हुए हैंयह तो स्वागतयोग्य है कि सरकार ने उपरोक्त दोनों फैसलों पर पुनर्विचार याचिका देने का निर्णय किया है और ये घोषणा की है कि अगर फैसला अनुकूल नहीं रहा तो वह संविधान संशोधन का रास्ता अपनाएगी। इससे मुमकिन है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से पैदा हुई तात्कालिक समस्या हल हो जाए। लेकिन इससे योग्यता की समाज-निरपेक्ष और अमूर्त अवधारणा को तोड़ने में बहुत मदद नहीं मिलेगी। इसके लिए सायास और सक्रिय प्रयासों की जरूरत होगी। इस निराधार धारणा को चुनौती देना एक बड़ा काम है। ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को यह जरूर बताया जाना चाहिए कि मुमकिन है कि वे अपनी योग्यता से नहीं, बल्कि अपने परिवार की सामाजिक-आर्थिक हैसियत के कारण मिली विशेष सुविधाओं और अवसरों के जरिए वहां पहुंचे हों। सदियों से जो समूह इन सुविधाओं और अवसरों से वंचित हैं, उनके विकास एवं प्रगति की राह में अब विषम सामाजिक व्यवस्था के कारण लाभ पा रहे लोग योग्यता की अयथार्थ एवं मनोगत दीवार खड़ी नहीं कर सकते।

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

Courtesy- http://www.patrakarpraxis.com 

Inauguration of Feku.in



 www.pheku.in is a new and forward moving engagement with India’s new struggle for democratic space.  The last five years has seen a significant and often angry civil society mobilization against what is perceived as a descent into anarchy and authoritarian actions by the state. The decade long rule of the UPA government has not only led to the sporadic ignition of youth anger but also created the space for the emergence of a fascist politician in Narendra Modi on to the national stage. Like all fascists Modi presents a model of efficiency and effective rule to a beleaguered nation and like most fascists this model of efficiency and growth is based on lies, half-truths and a million dollar PR industry.
But such a moment when a fascist alternative is being sold to civil society, is also the moment which can produce a creative challenge. www.pheku.in offers such a challenge by putting every creation of the Modi PR machinery under the scanner. We have collected a vast range of data on the Gujarat model of development and have commissioned several new investigations on claims that he has made publicly. Thus, pheku.in will serve simultaneously as a clearing house for publicly available information and as a breaking news site through the election season. Our objective with pheku.in is two-fold: to build a new democratic imaginary by exposing the record of the most authoritarian politician in India today and simultaneously produce a new level of engagement for the youth in Indian politics. pheku.in‘s team is located in 15 different states across India and 4 cities outside the country.
The unique combination of Modi’s authoritarianism, his deeply communal record, and his ability to lie smoothly is the fertile ground on which pheku.in will flourish. Already some exposures of his smooth lies – such as his Himalayan miracle – have been exposed. Our examinations reveal hundreds more that need to be unveiled. These lie along several dimensions – his destruction of democratic institutions in Gujarat, scams of enormous proportions and needless to say, his Pheks – from which we get our name. Any politician responsible for the slaughter of over 2000 minorities and several encounter killings should be beyond the pale as a Prime Ministerial aspirant. But a beleaguered nation engages all hope even when such hope is mere Chimera. Pheku.in, we hope, will be part of a new era of democratic upsurge in India. 

www.pheku.in is being simultaneously launched on  August 23, 2013 in over 20 cities across India. The following people launched the website:

1.    Ahmadabad -to be launched by Prakash Shah, Mahesh Pandya, Gautam Thaker, Hemant Shah
2.    Ajmer- to be launched by DlTripathi, Anant Bhatnagar, Carol Geeta
3.    Bangalore- to be launched by (Gauri Lankesh, Parvateesha
4.    Bilaspur – to be launched by  Zulekha Jabin, Nand Kashyap, Noor Nawaz Khan
5.    Bhopal- to be launched by LS Hardenia, Father Anand, Yogesh Diwan
6.    Delhi – to be launched by Kavita Srivastav, Apoorvanand, Mansi Sharma
7.    Goa – to be launched by Eric Pinto
8.    Hissar- to be launched by Prof Anil Panikkar, Rajender Yadav , Manjeet Roperia
9.    Hyderabad- to be launched by  L Ravi Chander, Jasveen Jairath, V Ramakarishnan
10.  Jaipur- to be launched by Prem Krishan Sharma, Radha Kant Saxena, Mohammed Hasan, Krishan Takhar: Nishat Hussein
11.  Jammu- Tanveer Hussain Khan,
12.  Kozhikode- to be launched by Secular Collective & Keluettan Study& Research Centre
13.  Lucknow – to be launched by Prof Rooprekha Verma- Saajhi Duniya, Pradeep Ghosh- IPTA, Manan Trivedi & Shabnam Hashmi -ANHAD
14.  Mandya, Karnataka- to be launched by-Dr Vasu-Janashakti
15.  Mangalore- to be launched by-Suresh Bhat
16.  Mumbai – to be launched by- Prof Ram Puniyani, Dolphy D’Souza, Abraham Mathai
17.  Nuh – to be launched by Ramzan Choudhary, Zubair Ahmad, Subhash Kumar, Dr Abdul Wahab
18.  Patna – to be launched by Father Philip Manthra, Prof. Bharti S Kumar, Prof. M.N.Karna, Alok Dhanwa, Prof. N.K. Chaudhry
19.  Pune- to be launched by Neeraj Jain
20.  Rohtak- to be launched by
21.  Saharanpur – to be launched by Prof Surendra Nischal, Shahin Ansari
22.   Shimoga- to be launched by Ashok- Karnataka Communal Harmony Forum
23.   Srinagar- to be launched by- Shabbir Hussain Buchh, Iqbal Wami
24.  Udaipur- to be launched by Ramesh Nandwana, Ashwani Paliwal
25.   Varanasi – to be launched by Prof Mohd Arif,  SM Khursheed, Dr Lenin Raghuvanshi, Anand Tiwari,  Zaheer Ahmad, Suresh Kumar
Pheku.in is endorsed by: Amit Sengupta, journalist, Delhi, Anjum Rajabali, script writer, Mumbai, Anuradha Chenoy, professor, JNU, Delhi, Apoorvanand, Prof, DU, Delhi, Arma Ansari, filmmaker, UP, Ashok Vajpaye, poet, Delhi, Avni Sethi, Designer, dancer, Ahmadabad, Azam Khan, entrepreneur, Hyderabad, Biju Mathew, Hyderabad, Cedric Prakash, Director Prashant, Gujarat, Dev Desai, social activist, Ahmadabad, Ganesh Devi, Bhasha, Baroda, Gauri Lankesh, Lankesh Patrike, Bangalore, Gautam Thakkar, Harsh Mandar, writer, activist, Delhi, Harvardhan Hegde, Surgeon, Delhi, Indu Kumar Jani, writer, Ahmadabad, Irfan Engineer, social activist, Mumbai, Kalpana Kannabiran, Hyderabad, Kamal Chenoy, Prof JNU, Delhi, Kavita Krishnan, Kedar Misra, journalist, writer, Bhubaneswar, KM Shrimali, historian, Delhi, KN Panikkar, historian, Trivandram, Lawrence Surendra, Bangalore, Mahesh Bhatt, filmmaker, Mumbai, Mahesh Pandya, Mallika Sarabhai, artist, Ahmadabad, Manan Trivedi, social activist, Ahmadabad, Manisha Trivedi, Social Activist, Ahmadabad, Mansi Sharma, activist, Delhi, Nandini Sundar, Naseeruddin Shah, actor, Mumbai, Neena Vyas, Noorjahan Diwan, Social activist, Ahmadabad, Parvateesha, Lankesh Patrike, Bangalore, Prakash Shah, journalist, Ahmadabad, Purnima Joshi, journalist, Delhi, Rahul Roy, filmmaker, Delhi, Ram Puniyani, writer, Mumbai, Ram Rahman, designer, photographer, Delhi, Seema Mustafa, journalist, Delhi, Shabnam Hashmi, activist, Delhi, Sukumar Muralidharan, journalist, Delhi, Tanzil Rahman, Delhi, Vani Subramanian, activist, Delhi, Vivan Sundaram, artist, Delhi, Yadavan Chandran, artist, Darpana Academy, Zaheeruddin Ali Khan, Hyderabad, Zakia Soman, BMMA, Gujarat, Zulekha Jabin ( Chattisgarh)

FACT SHEET [Gujarat]
·       In 10 years 60,000 small scale industries have been closed down.
·        Gujarat ranks 5TH  in F.D.I.
·        The state’s total debt was less than Rs 10,000 crore when the BJP first came to power in Gujarat in 1995. Gujarat’s actual debt has mounted from Rs 45,301 crore in 2001-02 when Modi took over  to Rs 1,38,978 crore on December 30, 2012.  The debt would mount to Rs 2,07,695 crore as per the state government’s budget estimates by 2015-16.
·        Gujarat is at 8th position in agricultural growth. Gujarat is never achieved 10% growth in Agriculture sector. As per Government of Gujarat’s own statistics from year 2005-2006 to 2010-2011, growth in GSDP in Agriculture and Allied sector is 3.44% only-not double digit or 10%.
·        In Gujarat VAT on fertilizer is 5% it is highest in India
·        In Gujarat 26 districts have 225 blocks in which 57 are dark zone blocks.
·        455885 Applications are pending for agricultural power connection as on March, 2011
·        Close to half of the states children under the age of 5 (44.6 %) are known to be suffering from malnutrition. 70 per cent are said to be anemic while 40 per cent are underweight.
·        In  8 districts and 3 Talukas of Gujarat, 2494 teachers posts are vacant.
·        In 4 dist of Gujarat, approximately 978 schools are running with only 1 or 2 teachers.
·        Health expenditure by Gujarat fallen down from 4.25% in 1990-95 to 0.77% in 2005-2010. Gujarat occupied second position from bottom in terms of allocation of health in state budget.
·        Gujarat ranks 20th (the bottom) among the 20 major states in the percentage of women with severe anaemia.
·        Gujarat ranks 15th in malnourishment in children
·        Gujarat ranks 16th in children’s anaemia
·        Gujarat ranks 14th in rural IMR and 10th in urban IMR.
·        According to report on Global Hunger (2009), Among the major 17 states in India, Gujarat ranks 13th with a Hunger Index of 23.3. The state has been declared as an “alarming state” along with MP, Jharkhand and Bihar
·        The data show that 67 per cent of rural households in the State ranks 10th in the use of latrines.
·        Data collected during the National Census 2011 reveals that around 29 per cent of the total number of households in Gujarat is receiving untreated drinking water. Approximately 1.75 crore people are not getting clean drinking water.
·        Gujarat has 32% poverty in 2001 and it reached 39.5% in 2011. Every 100 person there is 40 persons poor. Statistics of the NSSO show that the percentage of reduction of poverty between 2004 and 2010 was the lowest in Gujarat, at 8.6 per cent.
·        52,260 number of scholarships minority students should have got in Gujarat, through the Centre started a scholarship scheme for minorities; to be shared in 75:25 ratio between the Centre and state to encourage students from poor families to complete schooling. Since the scheme started, Gujarat has let the funds lapse by not sending any proposal to the Centre for giving these scholarships.
·        12% Muslims’ share of total bank accounts in Gujarat, but their loan amount outstanding is only 2.6 percent. This proves they don’t get loans.
·        UNDP United Nations has observed that poverty head count ratio for Muslims is highest in the states of AssamUttar PradeshWest Bengal and Gujarat.
·        Of 1,958 riot cases reopened after the Supreme Court order, the Gujarat Police made arrests in only 117 cases — 5 percent of the total
·        Gujarat stands 11th in implementing Forest Rights Enactment, 2006.
·        One rape takes place every three days in Gujarat.
·        The Deputy Speaker’s post is left vacant by the Gujarat Government for a decade. (As per article 178 of Indian constitution, it is compulsory)
·        Assembly runs on an average for 30-32 days a year.
·        No Lokayukta appointed since last 10 years.
·        Gujarat has organized 3716 Employment festival” as per Government of Gujarat own record 10 lacks educated youth are unemployed and a total of 30 lakh people are unemployed.
·        NSSO data show that in Gujarat , growth in employment has dropped to almost zero in the past 12 years
·          A recent CAG review on accounts of the States is an eye-opener when it comes to Gujarat, the latter’s high claims notwithstanding. Allegedly there are Rs 16,706.99 crore worth of financial and land allotment irregularities with resultant negative impact on delivery on economic and development fronts


 Press Release  by Dr. Ram Punyani 

चुटका: घुप्प अंधियारे में रोशनी का खेल

                                                             
प्रशांत कुमार दुबे


चुटका ने सत्ताधारियों को पुनः जतला दिया है कि अब उनकी चुटकी बजाते ही आदिवासी व अन्य वंचित समुदाय घुटने नहीं टेक देंगे। परमाणु ऊर्जा संयंत्र के विरुद्ध संघर्षरत चुटका (मंडला-मध्यप्रदेश) के नागरिको ¨को¨ देशभर से मिले  जनसमर्थन ने उनके हौसले और बुलंद किए हैं। परमाणु ऊर्जा को लेकर सरकार की व्यग्रता भी समझ के परे है। हर बार जनसुनवाई के इंतजार के नाम पर लाखों  रुपए खर्च किए जाते हैं और नतीजा सिफर!


चुटका परमाणु विद्युत परियोजना को लेकर सरकारी महकमे, सम्बंधित कंपनी, उसके कर्मचारी और कथित रूप से पढ़ा-लिखा एक वर्ग जानना चाहता है कि सिरफिरे आदिवासी आखिर विकास क्यों नहीं चाहते? रोजगार और विकास की आने वाली बाढ़ की अनदेखी कर ये अपने अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी क्यों मारना चाहते हैं? भारत सरकार और जनप्रतिनिधियों के प्रति अहसानमंद होने के बजाए ये लोग उल्टा सरकार को क्यों कटघरे में खड़ा कर रहे हैं?

मध्यप्रदेश के मंडला जिले में दो चरणों में 1400 मेगावाट परमाणु बिजली पैदा करने वाली इस परियोजना की योजना सन् 1984 में बनी थी। इसकी आरंभिक लागत 14 हजार करोड़ रुपए तथा इस हेतु 2500 हेक्टेयर जमीन की जरूरत होगी। अक्टूबर 2009 से केन्द्र सरकार ने इस परियोजना को आगे बढ़ने की अनुमति दे दी है। सरकार इसे 2800 मेगावाट तक विस्तारित करना चाहती है और जिसके चलते 40 गांवों को खाली कराना होगा। इस परियोजना के निर्माण का ठेका परमाणु विद्युत कार्पोरेशन ऑफ इंडिया (आगे हम इसे कम्पनी कहेंगे) को दिया गया है। सरकार का कहना है इससे स्थानीय लोगों व आदिवासियों को रोजगार मिलेगा। यह एक सस्ती और बढि़या पद्धति है। इतना ही नहीं विस्थापित होने वाले प्रत्येक परिवार को भारत का परमाणु बिजली निगम मुआवजा देगा।

यह बातें तो अनजान शहरी वर्ग को और इस परियोजना के पक्ष में खड़े लोगों को आकर्षित करती हैं। वैसे ठेठ निरक्षर आदिवासी लोग इसके पीछे छिपे उस अप्रत्यक्ष कुचक्र की बात कर रहे हैं। जिसके विषय में ना ही कोई सरकारी व्यक्ति और ना ही कोई सरकारी रिपोर्ट बात कर रही है। आदिवासियों का मानना है कि जब हमारे पास ऊर्जा के दूसरे, सस्ते और नुकसान रहित विकल्प मौजूद हैं तो फिर सरकार आंख मूंदकर परमाणु उर्जा के पीछे क्यों भाग रही है।

आदिवासी जान गए हैं कि परमाणु बिजलीघर से पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक विकिरणीय कचरा पैदा होता है। यूरेनियम से परमाणु ऊर्जा निकलने के बाद जो अवशेष बचता है वह 2.4 लाख साल तक तीव्र रेडियोधर्मिता युक्त बना रहता है। दुनिया में इस कचरे के सुरक्षित निष्पादन की आज तक कोई भी कारगर तकनीक विकसित नहीं हो पाई है। यदि इसे धरती के भीतर गाड़ा जाता है जो यह भू-जल को प्रदूषित और विकिरणयुक्त बना देता है। उनका सवाल है, रूस के चेर्नोबिल और जापान में फुकोशिमा जैसे गंभीर हादसों के बाद तथा अमेरिका जैसे परमाणु उर्जा के सबसे बड़े हिमायती देश द्वारा भविष्य में कोई भी नया परमाणु विद्युत संयत्र लगाने का फैसला तथा पिछले पिछले चार दशकों में अब तक 110 से ज्यादा परमाणु बिजली घर बंद करने के बाद भी हमारी सरकार परमाणु ऊर्जा के प्रति इतनी लालायित क्यों है?

परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के शुरू होने से भारत में अब तक 300 से भी ज्यादा दुघर्टनाएं हो चुकी हैं। लेकिन सरकार ने कभी इनके पूरे प्रभावों के बारे में देश की जनता को कुछ नहीं बताया। हमारे यहां झारखंड की जादुगुड़ा खान से यूरेनियम निकाला जाता है। वहां भी विकिरण के चलते लोगों के गंभीर रूप से बीमार होने और मरने तक की रिपोर्ट हैं। चुटका परमाणु संघर्ष समिति के लोग रावतभाटा और अन्य संयत्रों का अध्ययन करने के बाद जान पाए कि इन संयत्रों के आसपास कैसे जनजीवन प्रभावित हुआ है। संपूर्ण क्रांति विद्यालय बेडछी, सूरत की रिपोर्ट तो और आंख खोल देती है। रिपोर्ट के मुताबिक परमाणु संयंत्रों के आसपास के गांवों में जन्मजात विकलांगता बढ़ी है, प्रजनन क्षमता पर प्रभाव पड़ा है, निसंतानों की संख्या बड़ी है, मृत और विकलांग बच्चों का जन्म होना, गर्भपात और पहले दिन ही होने वाली नवजात की मौतें बढ़ी है। हड्डी का कैंसर, प्रतिरोधक क्षमता में कमी, लम्बी अवधि तक बुखार, असाध्य त्वचा रोग, आंखों के रोग, कमजोरी और पाचन तंत्र में गड़बड़ी आदि शिकायतों में वृद्धि हुई है।

परमाणु विरोधी राष्ट्रीय मोर्चा, नई दिल्ली के राष्ट्रीय संयोजक, डॉ. सौम्या दत्ता बताते हैं कि कैसे इस परियोजना को लेकर भी सरकार और कम्पनी ने कदम-कदम पर झूठ बोला है या बहुत सारी बातों और चिंताओं को सार्वजनिक नहीं किया है। अव्वल तो यही कि कंपनी के निर्देशों के अनुसार परमाणु विद्युत परियोजनाओं को भूकंप संवेदी क्षेत्र में स्थापित नहीं किया जा सकता है। फिर भी राष्ट्रीय पर्यावरण अभियंत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) नागपुर द्वारा तैयार जिस रिपोर्ट पर जन-सुनवाई रखी गई थी, उस रिपोर्ट में भूकंप की दृष्टि से उक्त क्षेत्र के अतिसंवेदनशील होने के तथ्य को छुपाया गया है, जबकि मध्यप्रदेश सरकार की आपदा प्रबंधन संस्था, भोपाल द्वारा मंडला और जबलपुर को अतिसंवेदनशील भूकंपसंवेदी क्षेत्र घोषित किया है। उल्लेखनीय है कि 22 मई, 1997 को इसी क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर 6.4 तीव्रता का भूकम्प आ चुका है, जिससे सिवनी, जबलपुर और मण्डला में अनेक मकान ध्वस्त हुए और अनेक मौतें भी हुई थीं। दूसरा तथ्य जो सार्वजनिक नहीं किया गया है वह यह कि केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण (सी.ई.ए.) के अनुसार परमाणु बिजलीघर में 6 घनमीटर प्रति मेगावाट प्रति घंटा पानी लगता है। इसका अर्थ है कि चुटका परमाणु बिजलीघर से 1400  मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए 7 करोड़ 25 लाख 76 हजार घनमीटर पानी प्रति वर्ष आवश्यक होगा। यह पानी नर्मदा पर बने बड़े बांधों में से एक बरगी बांध से लिया जाएगा! बरगी बांध के दस्तावेजों में यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि इसका उपयोग केवल कृषि कार्यों और 105 मेगावाट विद्युत उत्पादन के लिए ही होगा, तो फिर यह पानी परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए कैसे जाएगा?

परमाणु संयंत्र से निकलने वाली भाप और संयंत्र को ठंड़ा करने के लिए काम में आने वाले पानी में रेडियोधर्मी विकिरण युक्त तत्व शामिल हो जाते है। भारत में अधिकांश परमाणु विद्युत परियोजनाएं समुद्र के किनारे स्थित हैं, जिनसे निकलने वाले विकिरण युक्त प्रदूषण का असर समुद्र में जाता है किन्तु चुटका परमाणु संयंत्र का रिसाव बरगी जलाशय में ही होगा। विकिरण युक्त इस जल का दुष्प्रभाव मध्यप्रदेश एवं गुजरात में नर्मदा नदी के किनारे बसे अनेक शहर और गांववासियों पर पड़ेगा, क्योंकि वहां की जलापूर्ति नर्मदा नदी से ही होती है। इससे जैव विविधता के नष्ट होने का खतरा भी है।

मध्यप्रदेश की आदर्श पुनर्वास नीति कहती है कि लोगों के बार-बार विस्थापन पर रोक लगनी चाहिए। चुटका से प्रभावित लोग एक बार बरगी बांध के कारण पहले ही विस्थापित हो चुके हैं, ऐसे में इन्हें यहां से पुनः विस्थापित करना नीति का ही उल्लंघन है। वैसे भी मंडला जिला पांचवीं अनुसूची में  अधिसूचित क्षेत्र है। पंचायत (अनूसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 – (पेसा कानून) के अंतर्गत ग्रामसभा को विशेष अधिकार प्राप्त हैं। चुटका, कुंडा और टाटीघाट जैसे गांवों की ग्रामसभा ने पहले ही इस परियोजना का लिखित विरोध कर आपत्ति जताई है, ¨ फिर उसे नजरंदाज करना क्या संविधान प्रावधानों का उल्लंघन नहीं है?

सबसे गंभीर बात यह है कि ग्रामीणों को अँधेरे में रखने हेतु परियोजना  की 954 पृष्ठों वाली रिपोर्ट सिर्फ अंग्रेजी में प्रकाशित की है और यह भी तकनीकी शब्दावली से भरी पड़ी है। अभी रोजगार दिए जाने जैसे सवालों पर बात नहीं हुई है। जब तक इस परियोजना के लिए कार्यालय /कालोनी आदि बनेगी, तब तक स्थानीय जनों को मजदूरी वाला काम उपलब्ध कराया जाएगा। खुद कम्पनी के दस्तावेज कहते हैं कि यह एक तकनीकी काम है और जिसके लिए उच्च प्रशिक्षित लोगों की जरुरत होगी? इस विपरीत दौर में एक राहत की बात यह है कि चुटका में भारी जनदवाब के चलते परमाणु परियोजना के लिए पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट पर की जाने वाली जनसुनवाई को पुनः रद्द कर दिया गया है। जनसुनवाई की आगामी हलचल अब संभवतः विधानसभा चुनावों के बाद ही सुनाई दे।

मीडिया और विज्ञान का भगवाकरण

 -अतुल आनंद 

                                     
 मैं अपने धर्म की शपथ लेता हूँमैं इसके लिए अपनी जान दे दूंगा. लेकिन यह मेरा व्यक्तिगत मामला है. राज्य का इससे कुछ लेना-देना नहीं. राज्य का काम धर्मनिरपेक्ष कल्याणस्वास्थ्यसंचारआदि मामलों का ख़याल रखना हैना कि तुम्हारे और मेरे धर्म का.”


– महात्मा गाँधी

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, ऐसा हमारे संविधान में कहा गया है. संक्षेप में कहे तो धर्मनिरपेक्षता का अर्थ होता है धर्म का राज्य से अलग होना. कई बार इस धर्मनिरपेक्षता शब्द का कोई अर्थ नहीं रह जाता है जब राष्ट्रीयता, मीडिया और विज्ञान के मामलों में देश के बहुसंख्यक धर्म का विशेष ख़याल रखा जाता है. आज से लगभग दस साल पहले भाजपा के शासन वाली सरकार में एनसीईआरटी के इतिहास के किताबों से छेड़छाड़ कर उनका भगवाकरण करने की कोशिश की गयी थी. जिसका देश भर के शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों ने विरोध किया था. इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय को भी हस्तक्षेप करना पड़ा था. समय के साथ दक्षिणपंथी समूहों और उनके “इतिहासकारों” और “बुद्धिजीवियों” द्वारा हिंदुत्व का प्रचार और भगवाकरण की कोशिशें बढ़ी हैं.
  
भारत माता, जो एक हिन्दू देवी दुर्गा का प्रतिरूप लगती है, को दक्षिणपंथी समूहों ने एक “राष्ट्रीय” प्रतीक के रूप में लगभग स्थापित कर लिया है. भारत माता गौरवर्णा है. भारत माता का रंग-रूप से लेकर उनका पहनावा तक एक हिन्दू देवी की तरह है, जो आधे से अधिक भारतीय महिलाओं के रंग-रूप और पहनावे से मेल नहीं खाता. वह दुर्गा की तरह शेर पर सवार है. दिलचस्प बात यह है कि देश का एक प्रमुख दक्षिणपंथी संगठन भारत माता की इस छवि को अपने प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करता आया है. भारत माता की जय के नारे हिन्दू संगठनों के कार्यक्रमों से लेकर भारतीय सेना में समान रूप से गूँजते है.

मीडिया का जितना कवरेज हिन्दू धर्म के पर्व-त्योहारों को मिलता है, उतना कवरेज दूसरे धर्मों के पर्व-त्योहारों को शायद ही नसीब होता है. हिन्दू पर्व-त्योहारों के समय प्रमुख हिंदी अखबार अपने ‘मास्टहेड’ को उन पर्व-त्योहारों के रंग से रंग देते हैं. त्योहार विशेष पृष्ठों और खबरों से अखबारों को भर दिया जाता है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी बहुसंख्यक धर्म के त्योहारों में पूरी तरह डूब जाती है. वैसे भारतीय मीडिया सालभर हिन्दू धर्मग्रंथों के पात्रों और मिथकों को उद्धृत करती रहती है. भीम जैसे धार्मिक पात्रों को लेकर कार्टून-शो बनाए जाते हैं. हिंदी फिल्मों के नायक भी अधिकतर हिन्दू पात्र ही होते हैं, भले ही उस पात्र को निभाने वाले अभिनेता किसी दूसरे धर्म के हो. हाल ही में इतिहास से छेड़छाड़ का एक और उदाहरण देखने को मिला. टीवी पर शुरू हुए एक नए “ऐतिहासिक” कार्यक्रम में जानबूझकर अकबर को एक मुस्लिम आक्रान्ता और खलनायक के रूप में दिखाने की कोशिश की गयी है. यह अकबर जैसे उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष शासक का गलत चित्रण कर नयी पीढ़ी को भ्रमित करने की कोशिश है.

दूसरी तरफ हमारे शासक वर्ग ने (खासकर भाजपा के शासन-काल के दौरान) विज्ञान, स्वदेशी तकनीक और आविष्कारों को हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार का साधन बना दिया. भारत में विकसित तकनीकों और मिसाइलों का नामकरण हिन्दू मिथकों और पात्रों के नाम पर किया जाने लगा. “अग्नि”, “इंद्र”, “त्रिशूल”, “वज्र”, “पुष्पक” आदि इसके उदाहरण हैं. दिलचस्प बात यह है कि हिन्दू मिथकों के नाम पर रखे गए इन मिसाइलों के विकास और निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले ‘मिसाइलमैन’ डॉ कलाम एक अल्पसंख्यक समुदाय से है.

इतना ही नहीं, खेल के क्षेत्र में मिलने वाले पुरस्कारों के नाम “अर्जुन”, “द्रोणाचार्य” आदि भी हिन्दू धर्मग्रंथों से लिए गए हैं. मध्यप्रदेश में “गो-रक्षा कानून” जैसे अनूठे कानून लागू है. अब वहाँ निचली कक्षा के बच्चों को स्कूलों, मिशिनिरियों और मदरसों में गीता पढ़ाये जाने की कोशिश की जा रही है. यहाँ यह सवाल उठाना बेकार है कि यह कृपा सिर्फ हिन्दू धर्मग्रंथों पर ही क्यूँ की जा रही है? ईसाई और मुस्लिम धर्म के धर्मग्रंथों पर यह कृपा क्यूँ नहीं की जा रही? जब नरेन्द्र मोदी खुद के हिन्दू राष्ट्रवादी होने की घोषणा करते है तो हम भारतीयों को आश्चर्य नहीं होता क्योंकि यह देश तो पहले ही आधे हिन्दू-राष्ट्र में बदल चुका है. सावरकर और गोलवलकर के “हिन्दू-राष्ट्र” की संकल्पना को यथार्थ में बदलने की पूरी कोशिश की जा रही है.
दुर्भाग्य है कि बुद्धजीवियों और वैज्ञानिकों का एक वर्ग आधे-अधूरे और बेबुनियाद तथ्यों के आधार पर हिन्दू मिथकों को स्थापित करने और हिंदूत्व का प्रचार-प्रसार करने का प्रयास कर रहा है. हाल ही में मीडिया और विज्ञान के भगवाकरण का एक बेमिसाल उदाहरण देखने को मिला. दिनांक 29-07-2013, सोमवार के दैनिक भास्कर, झारखंड संस्करण में पृष्ठ संख्या 12 को ‘सोमवारी’ विशेष पृष्ठ बना दिया गया था[1]. दूसरे पृष्ठों पर भी श्रावण महीने में शिव अराधना और सोमवारी से जुड़ी ख़बरें हैं, लेकिन इस विशेष पृष्ठ पर “विशेषज्ञ” शिव और शिव-अराधना के महत्व का बखान कर रहे हैं. एक विशेषज्ञ जहाँ शिव की उपासना विधि बता रहे है वहीँ दूसरी तरफ एक दूसरे विशेषज्ञ यह दावा कर रहे है कि “शिवजी की उपासना से अपमृत्यु योग से मिल सकता है छुटकारा”. इस तरह के विशेष पृष्ठ और विशेषज्ञ विश्लेषण दूसरे धर्मो के त्योहारों के लिए नहीं दिखते हैं.

सबसे दिलचस्प लेख तो इस पृष्ठ के निचले भाग पर “एक वैज्ञानिक विश्लेषण” के रूप में है. शायद अखबार ने दूसरे लेखों की अवैज्ञानिकता को संतुलित करने के लिए इस “वैज्ञानिक विश्लेषण” को जगह दी है. हालांकि यह लेख भी दूसरे लेखों की ही तरह अवैज्ञानिक है. इस लेख का शीर्षक है “न्यूक्लियर रिएक्टर की बनावट है शिवलिंग के जैसा”. आश्चर्य नहीं कि इस तरह के बेसिरपैर की खबरों के कारण हिंदी मीडिया की यह दुर्गति हुई है. इस लेख को लिखने वाले रांची के एक जाने माने भूवैज्ञानिक डॉ. नीतीश प्रियदर्शी है. उन्होंने शिवलिंग और परमाणु संयंत्र में समानता स्थापित करने के लिए अजीबोगरीब तथ्य दिए हैं. जैसे कि परमाणु संयंत्र और शिवलिंग की सरंचना बेलन की तरह होती है. यह साबित करने के लिए लेखक ने भाभा परमाणु संयंत्र का उदाहरण दिया है. लेकिन लेखक यह बताना भूल गए कि विश्व के लगभग सभी परमाणु संयंत्रों की बनावट बेलन की तरह ही होती है. 

इससे यह साबित नहीं हो जाता कि परमाणु संयंत्रों का शिवलिंग से कोई रिश्ता है. अगर ऐसा होता तो परमाणु संयंत्र का आविष्कार विदेश की जगह भारत में किसी शिवभक्त ने किया होता. ऐसे कामचलाऊ विश्लेषण को वैज्ञानिक विश्लेषण बोल कर आप खुद अपनी फ़जीहत करवा रहे है. लेखक आगे कहते है कि नाभिकीय संयंत्र में भी जल का प्रयोग किया जाता है और शिवलिंग पर भी जल प्रवाहित की जाती है. नाभिकीय संयंत्र में जल का प्रयोग नाभिकीय छड़ों को ठंडा करने के लिए किया जाता है. वहीँ शिवलिंग पर जल के अलावा दूध भी डाला जाता है, लेकिन ये सब शिवलिंग को ठंडा करने के लिए तो नहीं किया जाता. लेखक महोदय भी ऐसा कोई दावा करते नज़र नहीं आते.
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यह लेख बेबुनियाद तथ्यों और सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है, जिसका एक ही उद्देश्य है- हिन्दू धर्म और इसके “इतिहास” की श्रेष्ठता को साबित करना. लेखक “स्यामंतक” नाम के किसी “रेडियोएक्टिव” पत्थर का जिक्र भी करते है जो सोमनाथ मंदिर में हुआ करता था. लेखक ने यह बताने की जरुरत नहीं समझी कि उस “रेडियोएक्टिव” पत्थर के संपर्क में आने वाले लोग कैंसर का शिकार होकर मरे थे या नहीं?

डॉ. नीतीश प्रियदर्शी के ब्लॉग पर और भी दिलचस्प चीजें मिलती हैं. इस लेख के अखबार में छपने के दिन ही डॉ. नीतीश प्रियदर्शी अपने ब्लॉग पर एक स्लाइड शो डालते है. प्राचीन “भारतीय” संस्कृति में नाभिकीय हथियारों के प्रयोग पर उनके शोध पर आधारित लगभग तेरह मिनट की इस स्लाइड शो का नाम है “डीड इंडिया हैव द एटॉमिक पॉवर इन एन्शिएन्ट डेज?” (क्या भारत के पास प्राचीन काल में परमाणु शक्ति थी?)[2]. अपने शोध से वह यह निष्कर्ष निकालते हैं कि महाभारत के युद्ध में नाभिकीय हथियारों का प्रयोग हुआ था. वह अपने इस इस स्लाइड शो की शुरुआत कणाद द्वारा अणु के अस्तित्व को लेकर खोज से करते है. इस स्लाइड शो में वह हिन्दू धर्मग्रंथों से ऐसे हथियारों के उदाहरण देते है जिसका नाभिकीय हथियारों से कोई संबन्ध नहीं दिखता. जैसे राम द्वारा शिव का बाण तोड़ा जाना, मोहनास्त्र, आग्नेयास्त्र, ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, इंद्र का वज्र, आदि. 

इस स्लाइड शो में पौराणिक कथाओं के नागास्त्र, जिसके प्रयोग से नागों की बारिश होती थी, के जैविक हथियार होने की संभावना व्यक्त की गयी है. डॉ. नीतीश प्रियदर्शी यहाँ हिन्दू संस्कृति की महानता और श्रेष्ठता सिद्ध करने के चक्कर में कुछ जरुरी सवालों का जवाब देना भूल जाते हैं. क्या इन अस्त्रों में नाभिकीय पदार्थों का प्रयोग हुआ था? सिर्फ कुछ मन्त्रों के सहारे आप नाभिकीय अस्त्र कैसे बना सकते है? अगर महाभारत के युद्ध में नाभिकीय हथियारों का प्रयोग हुआ भी था तो पांडव और दूसरे लोग जीवित कैसे बच गए? अगर कोई जीवित बचा भी तो विकिरण का प्रभाव आनेवाली पीढ़ियों पर रहता, कई तरह की अनुवांशिक बीमारियाँ और विकृतियाँ होती. जिस कुरुक्षेत्र में इन नाभिकीय हथियारों का इस्तेमाल हुआ था, वह जगह रहने लायक नहीं रहती, विकिरण का प्रभाव हजारों सालों तक रहता है. इन ग्रंथों में परमाणु हथियार या परमाणु संयंत्र बनाने की विधि लिखी होनी चाहिए थी. 

अपने इस शोध में डॉ. नीतीश प्रियदर्शी ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की संस्कृति को भी नहीं छोड़ा है जिनका हिन्दू सभ्यता-संस्कृति से कोई रिश्ता नहीं है. इस स्लाइड शो के अंत में डॉ. नीतीश प्रियदर्शी अपने इस शोध की जिम्मेदारियों से खुद को बचाते हुए नज़र आते है. वह बड़ी चालाकी से यह कह कर निकल जाते है कि इस शोध से उन्होंने कुछ साबित करने की कोशिश नहीं की है, यह शोध उन्होंने कुछ इंटरनेट वेबसाइटों और किताबों की मदद से किया है. हालांकि वह उन इंटरनेट वेबसाइटों और किताबों का कोई संदर्भ नहीं देते है. डॉ. नीतीश प्रियदर्शी इन धर्मग्रंथों का वैज्ञानिक और तार्किक विश्लेषण करने की जगह इनका महिमामंडन करते दिखते है.

डॉ. नीतीश प्रियदर्शी अपने एक दूसरे हालिया “शोध” में झारखंड के आदिवासी गाँवों में राम-लक्ष्मण के “पद-चिन्ह” खोज रहे है, जिसकी खबर झारखंड के एक अंग्रेजी अखबार ने छापी है. [3] उनके इस “शोध” का तरीका भी हिन्दू धर्मग्रन्थों के अध्ययन तक सीमित है.  इस “शोध” में वह गाँव में प्रचलित महाभारत और रामायण से जुड़ी किवदंतियों का जिक्र भी करते है. यहाँ पेंच यह है कि आदिवासियों के खुद के आदि-धर्म हैं, उनका हिन्दू धर्म से कोई लेना-देना नहीं तो फिर ये महाभारत और रामायण की किवदंतियाँ कहाँ से आई? इस बाबत जब डॉ. नीतीश प्रियदर्शी से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि वह भूवैज्ञानिक है और वहाँ पत्थरों और “पद-चिन्हों” पर शोध करने गए थे, उन्होंने गाँववालों से ज्यादा बातचीत नहीं की.

“अल्पसंख्यक तुष्टिकरण” जैसे जुमलों को उछालने वाले यह आसानी से भूल जाते हैं कि इस देश में बहुसंख्यक धर्म का तुष्टिकरण कैसे कई स्तरों पर होता रहता है. इस मामले में मीडिया, बुद्दिजीवी, प्रशासन तो अपनी भूमिका निभाते ही हैं, यहाँ तक कि अदालतें भी कई बार हिन्दू मिथकों के आधार पर फैसलें सुनाती है. 

 संदर्भ:[1] http://epaper.bhaskar.com/ranchi/109/29072013/jarkhand/12/[2]http://nitishpriyadarshi.blogspot.in/2013/07/did-india-have-atomic-power-in-ancient.html[3]http://www.telegraphindia.com/1130812/jsp/jharkhand/story_17221656.jsp 

अतुल, रांची से जनसंचार में स्नातक करने के बाद 
अभी टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (TISS), मुंबई 
से मीडिया में स्नातकोत्तर कर रहे है.
इनसे संपर्क का पता है- thinker.atul@gmail.com


आर. एस. एस. और व्यवसायी वर्ग

(6 दिसंबर 1992 – संघ परिवार की भीड़ ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया। इसके लगभग दो साल पहले से उन्होंने राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के नाम पर जो भयावह सांप्रदायिक उत्तेजना पैदा की वह इस घटना के बाद भी लंबे समय जारी रही। उसी पृष्ठभूमि में इस लेखक ने काफी शोध करके सन् 1993 में एक किताब लिखी – आरएसएस और उसकी विचारधारा। इस किताब के दो संस्करण नई दिल्ली से नेशनल बुक सेंटर से प्रकाशित हुए और बाद में राधाकृष्ण प्रकाशन से छपती रही है। 

तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है। सच यह है कि रामजन्म भूमि आंदोलन के रथ पर सवार होकर ही 1998 और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी। और उस सरकार की सबसे बड़ी कीर्ति सन् 2002 में सामने आई जब गुजरात के जनसंहार ने सारी दुनिया के सामने भारत के सर को हमेशा के लिये झुका दिया। 
बहरहाल, बाबरी मस्जिद को ढहाने और 2002 के गुजरात दंगों की तरह के अक्षम्य अपराधों के दोषी भारतीय जनता पार्टी और उसका सरगना आरएसएस आज गुजरात जन-हत्या के नायक को ही सामने रख कर आगामी लोक सभा चुनाव में उतर रहे हैं। 
जिस समय हमने किताब लिखी, उसकी पृष्ठभूमि में बाबरी मस्जिद की घटना थी, उस किताब का मकसद था – आरएसएस की तरह के एक रहस्यमय संगठन के पूरे सच को उजागर करना। इसीलिये आज भी उस किताब की उपयोगिता कम नहीं हुई है।  इधर मोदी के नाम से जो एक खास प्रकार की परिघटना दिखाई पड़ती है, वह उस किताब के निष्कर्षों की पुष्टि ही करती है। फिर भी मोदी से जुड़े घटनाक्रम को भी विश्लेषित करते हुए इस विषय के अध्ययन को अद्यतन बनाया जा सकता है। आने वाले दिनों में इसकी कोशिश करूंगा, और अपनी किताब के नये संस्करण में इस परिघटना को भी समेटने की कोशिश करूंगा। लेकिन फिलहाल, अपने फेसबुक के मित्रों के लिये उस किताब का एक अध्याय – आरएसएस और व्यवसायी वर्गदे रहा हूं। नरेन्द्र मोदी से जुड़ी कई बातों को समझने के अनेक सूत्र इससे मिल सकते हैं। ) 

अरुण माहेश्वरी

आर. एस. एस. और व्यवसायी वर्ग



व्यवसायियों के साथ आर एस एस का हमेशा एक गहरा सम्बन्ध देखा जाता है। बिल्कुल शुरू के दिनों में ही गोविन्द सहाय ने अपनी पुस्तक में इस पहलू पर थोड़ा प्रकाश डाला था। उन्होंने क्लर्कों के साथ ही मयमवर्गीय दुकानदारों के आर एस एस की ओर आकर्षित होने के एक मनोवैज्ञानिक कारण की बात कही थी। उन्होंने लिखा था कि ये वर्ग दमित आकांक्षाओं से पीडि़त एक हद तक निराश तबके होते हैं और हमेशा शक्तिशाली बनने की कामना करते हैं। आर एस एस की तरह का संगठन उनके सपाट और ढर्रेवर जीवन में थोड़ा वैविध्य ला देता है, पारिवारिक जीवन की निराशाओें और दमित वासनाओं से उत्पन्न शून्य को थोथी बहादुरी और सैनिक आचरण से एक हद तक भरा करता है, इसीलिए वे सहज ही इस संगठन की ओर आकर्षित हो जाते हैं।

हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान का विचार, अन्यथा पूरी तरह से अनुशासनहीन जीवन में एक अनुशासन लाने की इच्छा, रोमांचक खेलों तथा व्यायामों का रोमांच और आकर्षण और सर्वोपरि, महान संघ की विस्मयजनक आयात्मिकता या अबूझ रहस्यात्मकता इस वर्ग के लोगों के लिए काफी बड़ा आकर्षण साबित होती है।…व्यक्ति के जीवन में निजी स्वार्थ सबसे बड़ी चालक शक्ति होती है, इसके दबाव में निराश क्लर्क, जो अक्सर यह सोचता है कि स्वतन्त्रता ने उसके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं किया है, यह कल्पना करने लगता है कि विभाजन के बाद यदि मुसलमानों को खदेड़ दिया गया होता तो शायद उन्हें ज्यादा लाभ होता। इस प्रकार दुकानदार यह मानने लगता है कि यदि उनके व्यवसाय से मुसलमानों को निकाल बाहर कर दिया जाता तो उनके लिए अधिक सम्भावना के द्वार खुल जाते। (गोविन्द सहाय, पूर्वोक्त, पृ. 22-23)

इसके अलावा गोविन्द सहाय ने अपने ढंग से पूँजीपतियों, जमींदारों तथा अन्य निहित स्वार्थी तत्त्चों के संघ के प्रति आकर्षण के कारणों की ओर भी संकेत किया था। उन्होंने लिखा था : पूँजीपति, जमींदार तथा अन्य निहित स्वार्थी भी कुछ हैं जो निजी कारणों से कांग्रेस के किसान-मजदूर राजके आदर्श से डरते हैं। अपने संकीर्ण वर्गीय हितों के निष्ठुर तर्क से चालित ये लोग भी संघ को एकमात्रा ऐसा संगठन मानते हैं जो सत्ता से कांग्रेस सरकार को हटा सकता है और इस प्रकार जनतन्त्रा के क्रोध और आक्रोश से उन्हें बचा सकता है। (वही, पृ. 23-24)

गोविन्द सहाय खुद ए आइ सी सी के सदस्य थे। अन्य अनेक कांग्रेसजनों की तरह तब तक शायद उनको भी वहम था कि कांग्रेस सरकार किसी किसान-मजदूरराज के लिए काम कर रही है। लेकिन जहाँ तक पूँजीपतियों के एक हिस्से का आर एस एस की ओर खिंचाव का प्रश्न है, उनका कहना काफी हद तक सही था। कांग्रेस भले ही किसानों-मजदूरों का राज कायम न करें, लेकिन जमींदारों और पूँजीपतियों को लगता था कि आजादी के बाद जनतन्त्रा नाम की बला से कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों को बढ़ावा मिल रहा है। इन शक्तियों को वे अपने सामाजिक प्रभुत्व के लिए भारी खतरा मानते हैं। इसीलिए जनतन्त्र से भी वे नफरत करते हैं।

इस तथ्य को जे.ए. करान ने भी अपने शोध में रेखांकित किया है। करान की बातों से एक ओर जहाँ यह साफ है कि 1950 के काल में ही बड़े व्यवसायी घरानों के एक हिस्से का आर एस एस के साथ सम्पर्क स्थापित हो गया था, वहीं इन सम्पको के मूल में काम कर रहे इन व्यवसायियों के दृष्टिकोण का भी साफ पता चलता है।

अपने शोधकार्य के लिए करान जब ’50-’51 के दौरान डेढ़ वर्षों तक आर एस एस के लोगों से घनिष्ठ सम्पर्क बनाकर उसके बारे में जानकारियाँ इकट्ठी कर रहे थे, उसी काल में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण व्यवसायीसे हुई बातों का हवाला देते हुए करान ने लिखा था कि एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्यवसायी तथा संघ के काफी करीबी समर्थक ने लेखक से (करान से – अ.मा.) हाल में कहा कि यदि अमरीका भारत को स्तालिन एण्ड कम्पनी के खतरे से बचने में मदद करना चाहता है, तो उसे निश्चित तौर पर आर एस एस की मदद करनी चाहिए। (जे.ए. करान, पूर्वोक्त, पृ. 36)

यहीं पर करान ने आर एस एस के लोगों के मन में कम्युनिस्टों के प्रति चरम नफरत का भी उल्लेख किया है।

सच्चाई यह है कि आर एस एस का कभी भी अपना कोई आर्थिक कार्यक्रम नहीं रहा। यहाँ तक कि जब उसने जन संघ और फिर भारतीय जनता पार्टी की तरह की राजनीतिक पार्टियाँ भी बनाई, तब इन पार्टियों का भी कोई आर्थिक कार्यक्रम नहीं बन सका। आर्थिक कार्यक्रम के बारे में इनके नेताओं का कैसा विचित्रा रुख रहा है, यह उनके नेता अटल बिहारी वाजपेयी के एक कथन से पता चल जाता है। सन् 1984 के लोकसभा चुनाव के वक्त कुछ संवाददाताओं ने भाजपा के चुनाव घोषणापत्रा के सिलसिले में उनसे यह सवाल किया था कि कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्रा में तो विस्तार के साथ आर्थिक कार्यक्रम को रखा गया है, लेकिन आप लोग इस बारे में बिल्कुल मौन दिखाई देते हैं, तो इसके जवाब में उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि अरे इसमें क्या रखा है। जब कभी हम सत्ता में आएँगे तो नौकरशाहों की मदद से आपके सामने आर्थिक कार्यक्रम का पूरा पोथा पेश कर देंगे।

करान ने 1951 में ही आर्थिक क्षेत्र में आर एस एस का अपना कोई कार्यक्रम न होना इसकी एक बड़ी कमजोरी बताया था और लिखा था : संघ की बड़ी कमजोरी उनके पास किसी विशेष आर्थिक कार्यक्रम का अभाव है। अन्य राजनीतिक समूह इस मामले में उनसे बेहतर स्थिति में है। आर एस एस के लिए यह एक गम्भीर कमजोरी साबित हो सकती है, यद्यपि संघ के नेतागण इसकी गम्भीरता को महत्त्व नहीं देते। उनका मानना है कि इस प्रकार का कोई कार्यक्रम पेश करना जरूरी नहीं है क्योंकि वे एक खास प्रकार की मानसिकता तैयार कर रहे हैं और अन्य परम्परागत राजनीतिक पार्टियों की तरह सत्ता नहीं चाह रहे हैं। जब हिन्दू सम्प्रदाय उनके दृष्टिकोण को अपना लेगा तब उन्हें प्रभुत्व हासिल हो जाएगा। संघ के नेता इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं कि एक बार यदि आर एस एस के दर्शन की आधारशिला पर हिन्दू समाज का गठन हो जाता है तो अपने आप ही एक उपयुक्त आर्थिक व्यवस्था विकसित हो जाएगी। (जे.ए. करान, वही, पृ. 72)

आर्थिक मामलों पर आर एस एस के दृष्टिकोण की यही सच्चाई है। आज भी यदि किसी संघी से आप राष्ट्र के विकास के उनके भावी कार्यक्रम के बारे में पूछे तो वह यही कहेगा कि एकबार हिन्दू जाग जाएं, अपने-आप विकास के द्वार खुल जाएँगे। दीनदयाल उपायाय का एकात्म मानववाद का दर्शन भी सिर्फ लीपा-पोती ही है, उसमें ठोस कुछ नहीं है। जहाँ तक आर एस एस के मूल दर्शन का प्रश्न है, हमने पहले ही हेडगेवार और गोलवलकर के उद्धरणों से बताया है कि वे वर्णाश्रम ार्म को ही हिन्दू धर्म मानते थे और यह विश्वास करते थे कि आनेवाले समय में भी हिन्दू समाज का पुनर्गठन मनुस्मृति के सिद्धान्तों पर ही होगा। अभी वे अपनी इस उद्देश्य को पूरी तरह खोलकर रखना नहीं चाहते अन्यथा हिन्दुओं का बड़ा तबका, जो अनुसूचित जातियों और पिछड़े हुए वर्गों का है, बिदक कर इनकी गिरफ्त से हमेशा के लिए दूर चला जाएगा।

आर्थिक मामलों में आर एस एस और उसके संघ परिवार की नीतियों की पहचान उनके किसी सकारात्मक आर्थिक कार्यक्रम से नहीं, बल्कि कुछ मामलों में उनकी चरम नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से होती है। मसलन वे कम्युनिज्म के कट्टर विरोधी हैं। एक समय में भाजपा ने गांधीवादी समाजवाद का नारा जरूर दिया था, लेकिन सच्चाई यही है कि समाजवाद की तरह की किसी भी समतावादी विचाराारा पर उनका कोई विश्वास नहीं है। गोलवलकर हमेशा प्रकृति के सामंजस्य को असमानता पर टिका हुआ बताते थे और कहते थे कि इसमें समानता लाने की कोशिश प्रकृति के ध्वंस की कोशिश होगी। यही बात उनके अनुसार समाज पर भी लागू होेती है।

आर एस एस का यह कट्टर कम्युनिस्ट विरोध पूँजीपतियों के लिए सबसे बड़े आकर्षण की वस्तु रहा है। जिस प्रकार जर्मनी में उद्योगपतियों का एक हिस्सा कम्युनिस्टों पर हमले करके उन्हें समाप्त करने के उद्देश्य से ही नग्न रूप में हिटलर के तमाम जनतन्त्र विरोधी कामों में सहयोगी बना हुआ था, वही स्थिति कुछ हद तक भारत में आर एस एस के प्रति पूँजीपतियों के रुझान से जाहिर होती है।

आर एस एस के समर्थकों का बड़ा हिस्सा चूँकि मध्यमवर्गीय क्लर्कों एवं दुकानदारों का रहा है, इसलिए बड़े पूँजीपतियों के साथ अपने सम्बन्धों को उसका सर्वोच्च नेतृत्व हमेशा छिपाता रहा है। अन्य लोगों ने इस ओर संकेत अवश्य किए, किन्तु आर एस एस के कार्यकर्ता यही समझते रहे हैं कि उनके संगठन को पूँजीपतियों से कोई धन नहीं मिलता। गंगाधर इन्दूरकर ने अपनी पुस्तक में संघ के स्वयंसेवकों के ऐसे वहम को ही व्यक्त किया है जब उन्होंने लिखा कि आर एस एस पूँजीपतियों से प्राप्त धन पर नहीं चलता।

हेडगेवार ने जब गांधी जी को कहा कि संघ का खर्च स्वयंसेवकों द्वारा स्वेच्छा से दी जानेवाली गुरुदक्षिणा से चलता है, तो गांधी जी को इस कथन में झूठ के सिवाय और कुछ नहीं दिखाई दिया था। इस घटना का हम पहले उल्लेख कर आए हैं। पूँजीपतियों से संघ को दूर माननेवाले इन्दूरकर ने अपनी पुस्तक में ही बाद में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के चाल-चलन के बारे में गहरा सन्देह व्यक्त किया। उनके शब्दों में : आज भारतीय जनता पार्टी के कई नेता ऐसे हैं, जिनका व्यक्तिगत आलीशान खर्च कैसे चलता है, वह पैसा कहाँ से आता है, आदि प्रश्न रहस्य बने हुए हैं। उसके सम्बन्ध में कोई प्रणाली है क्या ? जनता कार्यकाल में जनसंघ की ओर से मुख्यमंत्री बने ब्रजलाल वर्मा, जो मध्य प्रदेश में काफी समय तक मुख्यमन्त्री पद पर रहे, वीरेन्द्र कुमार सकलेचा, दिल्ली के विजय कुमार मलहोत्रा, केदारनाथ साहनी, मदनलाल खुराना आदि के सम्बन में जो कहा जा रहा है, उसमें चरित्र हनन की दृष्टि से होनेवाली अतिशयोक्ति का अंश हो सकता है, पर साधारण व्यक्ति की भी यह समझ में नहीं आता कि उनकी आय और खर्च का मेल कैसे बैठाया जाएँ। विचारधारा की दृष्टि से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जन संघ और भाजपा के नजदीक जो लोग हैं, ऐसे कई जिम्मेदार लोगों से मैंने बात की है। पर किसी ने भी मुझसे यह नहीं कहा कि यह पूरी तरह झूठ है। (गंगाधर इन्दूरकर, पूर्वोक्त, पृ. 129) 

इन्दूरकर ने यह पुस्तक 1982 में मराठी में लिखी थी जिसका हिन्दी में अनुवाद 1985 में प्रकाशित हुआ था। उसे बाद के 10 वर्षों में तो गंगा में काफी पानी बह गया है। पिछले 5 वषो में विश्व हिन्दू परिषद ने राम जन्मभूमि आन्दोलन के नाम पर पूँजीपतियों से जो करोड़ों, अरबों रुपये बटोरे यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। और तो और, खुद लाल कृष्ण आडवाणी इसी दौरान 1991 में कलकत्ते में बी एम बिड़ला के व्यक्तिगत मेहमान बनकर गए थे। सन् 1991 के चुनाव के पहले शहर-शहर घूमकर उन्होंने पूँजीपतियों के साथ अलग से बैठकें की और करोड़ों रुपये भाजपा के लिए बटोरे। कई बड़े-बड़े पूँजीपति खुले आम विहिप और भाजपा के नेता बन गए हैं। पूँजीपतियों के एक बड़े तबके के साथ भाजपा के काफी घनिष्ठ सम्बन्ध बन गए हैं। इनमें से एक अम्बानी घराना भी कहा जाता है। स्थिति यह है कि संविधान की मर्यादाओं का खुला उल्लंघन करके बाबरी मस्जिद को ढहाने का अपराा करने के बाद भी जब उत्तर प्रदेश के भाजपा के पूर्व मुख्यमन्त्री कल्याण सिंह इसी फरवरी 1993 को कलकत्ता आए तो उनके स्वागत में यहाँ के पूँजीपतियों के एक हिस्से ने पलक पावड़े बिछा दिये और उन्हें एक दावत भी दी।

इस प्रकार ऐसा जान पड़ता है कि फासिस्ट संगठन के रूप में जैसे-जैसे भाजपा की उग्रता और उसका प्रभाव बढ़ रहा है, पूँजीपतियों का एक बड़ा तबका उसके साथ उतने ही नग्नरूप में जुड़ा हुआ दिखाई दे रहा है। भारत में साम्प्रदायिक फासीवाद के बढ़ाव में यहां का पूंजीपति वर्ग खुलकर योगदान कर रहा है। आज संघ परिवार के साथ भारत के पूँजीपतियों की घनिष्ठता की जो सूरत दिखाई दे रही है वह अनायास ही हिटलर के साथ जर्मनी के पूँजीपतियों के सम्बन्धों की याद को ताजा कर देती है। यहाँ हमारे लिए जर्मनी के इतिहास के उन पृष्ठों को उलटना बहुत ही उपयोगी होगा क्योंकि प्रश्न सिर्फ पूँजीपतियों के साथ फासीवाद के सम्बन्ध को जानने का ही नहीं है, इन सम्बन्धों के चलते मनुष्यता को कौन-कौन से दु:ख उठाने पड़े, और तो और, खुद पूँजीपतियों को ही इससे क्या हासिल हुआ, इतिहास से इसके सबक लेना जरूरी है।

शिरेर की किताब में हिटलर और जर्मनी के पूँजीपतियों के बीच सम्बनों का बहुत सजीव चित्रा मिलता है। हिटलर के पतन के बाद नाजी पार्टी के बचे हुए नेताओं पर युद्ध के जघन्य अपराधों के लिए न्यूरेमबर्ग में मुकदमा चलाया गया था। इतिहास में यह मुकदमा न्यूरेमबर्ग मुकदमे के नाम से प्रसिद्ध है जिसके अन्त में कुछ को मृत्युदण्ड और अनेक लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। इन अपरािायों में एक व्यक्ति था बाल्थर फंक। वह जर्मनी के एक प्रमुख आर्थिक अखबार बर्लिनर बोरसेन जेतुंग का एक समय सम्पादक था। सम्पादन के इस काम को छोड़कर वह नाजी पार्टी में शामिल हो गया तथा नाजी पार्टी और जर्मनी के महत्त्वपूर्ण व्यापारी घरानों के बीच वह सम्पर्क-सूत्रा की तरह काम किया करता था। न्यूरेमबर्ग मुकदमे की सुनवाई के दौरान उसने बताया था कि उसके कई उद्योगपति मित्रों ने, खासतौर पर राइनलैण्ड की बड़ी-बड़ी खदानों की कम्पनियों के मालिकों ने, उससे नाजी आन्दोलन में शामिल होने के लिए कहा था ताकि उस पार्टी को निजी उद्योगों के पक्ष में लाया जा सके।

फंक ने यह बताया कि 1931 तक आते-आते मेरे उद्योगपति मित्रों को तथा मुझे यह पूरा विश्वास हो गया था कि वह दिन दूर नहीं जब नाजी पार्टी सत्ता पर आनेवाली है।

हिटलर को उन दिनों ऐसे ही लोगों की तलाश थी जिनके पास धन हो। शिरेर लिखता है कि उस समय पार्टी को चुनाव अभियान चलाने, व्यापक और सघन प्रचार के खर्च को चुकाने, सैकड़ों पूरा-वक्ती अधिकारियों को वेतन देने तथा अपने तुफानी दस्तों वाली निजी सेना को बनाए रखने के लिए भारी मात्रा में धन की जरूरत थी। उस समय तक उसके तूफानी दस्ते के सैनिकों की संख्या 1 लाख पर पहुँच गई थी। व्यवसायी और बैंकर ही हिटलर के कोष के सबसे बड़े स्रोत थे। (शिरेर, पूर्वोक्त, पृ. 201-202)

युद्ध के बाद न्यूरेमबर्ग जेल में पूछताछ किए जाने पर फंक ने कुछ बड़े-बड़े उद्योगपतियों के नाम बताए थे जिनका हिटलर के साथ सम्बन था। कोयला खानों के शहंशाह इमिल किरदोर्फ ने सभी कोयला खान मालिकों से नियमित वसूली करके हिटलर के लिए रुर ट्रेजरी नाम का एक फंड ही तैयार किया था। उसके साथ हिटलर का सम्बन 1929 में कायम हुआ था। वह यूनियनों से बहुत नफरत करता था और हिटलर ने यूनियनों के विरुद्ध उसे अपने तूफानी दस्ते के जरिये सहायता पहुँचाई थी। किरदोर्फ के भी पहले से हिटलर को नियमित चन्दा देनेवाला व्यक्ति था फ्रिट्ज थाइसेन। स्टील ट्रस्ट के प्रमुख इस व्यक्ति ने बाद में एक पुस्तक लिखी : आई पैड हिटलर, जिसमें उसने अपने इस कृत्य के लिए काफी दु:ख जाहिर किया। उसने 1923 में ही हिटलर को पहला तोहफा 1 लाख मार्क (25 हजार डालर) का दिया था। उसके साथ ही जर्मनी की यूनाइटेड स्टील वक्र्स का मालिक अलबर्ट वोग्लर भी नाजी पार्टी को नियमित रुपये दिया करता था। शिरेर ने बताया है : 1930 से 1933 के काल में सत्ता के मार्ग की अन्तिम बाधाओं को पार करने के लिए हिटलर को मुख्य रूप से उद्योगपतियों से जो कोष मिला उसका मुख्य हिस्सा कोयला और इस्पात उद्योग से आया था। (शिरेर, पूर्वोक्त, पृ. 23)

फंक ने हिटलर को कोष देनेवाले और भी अनेक उद्योगपतियों और उनकी कम्पनियों के नाम बताए थे। कुल मिलाकर यह सूची काफी लम्बी है। इनमें जर्मनी के विशाल रसायन कार्टल आई.जी. फारबेन के प्रमुख डॉयरेक्टर जार्ज वान स्निजलर, पोटेशियम उद्योग के अगस्त रोस्टर्ग, अगस्त दिहन, हम्बर्ग-अमेरिका लाइन के कूनो, शक्तिशाली कोलोन उद्योग के ओटो वुल्फ, डच बैंक, कामर्स एंड प्राइवेट बैंक की तरह ही कई प्रमुख बीमा कम्पनियों और बैंकों के मालिक, जर्मनी की सबसे बड़ी बीमा कम्पनी एलियांज के मालिक शामिल थे जो हिटलर को नियमित कोष जुटाकर दिया करते थे। हिटलर के एक आर्थिक सलाहकार विल्हेल्म केपलर का दक्षिण जर्मनी के उद्योगपतियों से गहरा सम्बन था। उन्होंने व्यवसायियों का एक अलग से संगठन ही बनाया था जो हिटलर के तूफानी दस्ते के प्रमुख हिमलर के प्रति समर्पित था। इस संगठन का उन्होंने नाम रखा था सर्कल ऑफ फ्रेंड्स ऑफ इकोनोमी।

कुछ उद्योगपतियों ने शुरू में हिटलर का साथ नहीं दिया था, किन्तु बाद में उन्होंने भी दबाव में आकर या बहती गंगा में हाथ धोने के इरादे से नाजी पार्टी के साथ खुद को कुछ हद तक जोड़ लिया था। ऐसी कम्पनियों में जर्मनी की सबसे बड़ी बिजली के उपकरण बनानेवाली कम्पनी सीमेंस भी थी।

इस प्रकार जाहिर है कि सत्ता पर आने के हिटलर के अन्तिम अभियान में इसके पास उद्योगपतियों की विशाल धनराशि उपलब थी। यद्यपि हिटलर का प्रचारमन्त्री गोयेबल्स तब भी रुपये की कमी की बात किया करता था, लेकिन सारे तथ्य बताते हैं कि हिटलर को उद्योगपतियों से ही करोड़ों मार्क प्रति महीने मिलते थे।

इन तमाम उद्योगपतियों ने हिटलर को इस प्रकार भारी धन देकर कौन सा महान काम किया था, इसे कुछ ने तो युद्ध के दौरान ही तथा कुछ ने युद्ध के बाद खुलेआम माफियाँ माँग कर स्वीकारा था। सन् 1930 में राइख बैंक के अयक्ष पद से इस्तीफा देकर 1931 में हिटलर से मिलने और अपनी पूरी शक्ति लगाकर हिटलर को बड़े-बड़े उद्योगपतियों, बैंकरों आदि के सम्पर्क में लानेवाले डॉ. स्काख्त, जिनके बारे में कहा जाता है कि हिटलर को सफलता की अन्तिम सीढि़याँ चढ़वानेवालों में वे एक सबसे प्रमुख व्यक्ति थे, ने हिटलर के चांसलर बनने के पहले ही उसे एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था : मुझे कोई सन्देह नहीं है कि आज की परिस्थितियाँ आपको चांसलर बना देगी।…आपका आन्दोलन अपने अन्दर इतने बड़े सत्य और आवश्यकता को धारण किए हुए है कि विजय ज्यादा दिन तक आपसे दूर नहीं रह सकती…निकट भविष्य में मेरा कार्य मुझे कहाँ ले जाएगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, यहाँ तक कि आप मुझे किले में बन्दी पड़ा हुआ देख सकते हैं, तब भी आप मुझे हमेशा अपना वफादार समर्थक मान सकते हैं। (शिरेर द्वारा उद्धृत, पृ. 205)

स्काख्त के इस पत्रा पर टिप्पणी करते हुए शिरर ने लिखा है कि नाजी आन्दोलन का एक बड़ा सत्य जिसे हिटलर ने कभी छिपाया नहीं, वह यह था कि यदि वह पार्टी कभी जर्मनी की सत्ता पर आ गई तो वह जर्मनी से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को, जिसमें डॉ. स्काख्त और उनके व्यवसायी दोस्तों की स्वतन्त्राता भी शामिल है, समाप्त कर देगी। इसे समझने में राइख बैंक के मिलनसार अयक्ष, जिस पद पर हिटलर के काल में वे फिर लौट आए थे, तथा उद्योग और वाणिज्य के क्षेत्र में उनके सहयोगियों को थोड़ा समय लगा। डॉ. स्काख्त हिटलर के चांसलर बनने के बारे में ही एक सही भविष्यवक्ता साबित नहीं हुए, बल्कि फ्यूहरर (हिटलर का लोकप्रिय सम्बोधन — अ.मा.) द्वारा उन्हें बन्दी बनाए जाने के बारे में भी उनकी भविष्यवाणी सच निकली। किले में नहीं, उन्हें बन्दी बनाकर यातना शिविर में रखा गया था, जो कहीं ज्यादा बदतर था, तथा हिटलर के वफादार समर्थक के रूप में नहीं (इस मामले में वे गलत साबित हुए) बल्कि उसके विरोधी के रूप में। (शिरेर, पृ. 205)

सन् 1933 के जमाने से ही हिटलर ने यातना शिविरों का निर्माण शुरू कर दिया था। कँटीलें तारों से खुले स्थान को घेर कर बनाए गए ऐसे यातना शिविरों की संख्या एक वर्ष के अन्दर ही 50 हो गई थी। हिटलर के तुफानी दस्ते लोगों को डराने, उनसे ब्लैकमेल करने के लिए इन यातना शिविरों का खुलकर प्रयोग करते थे। इन शिविरों में सुनियोजित ढंग से हत्याएँ करायी जाती थी। बन्दियों को भूख और प्यास से तड़पाकर मार दिया जाता था। इनमें एक खासी संख्या व्यवसायी समाज के लोगों की भी थी जिनसे पैसे वसूलने के लिए हिटलर के लोग इन शिविरों का प्रयोग किया करते थे। ऐसे-ऐसे यातना शिविरों का भी गठन किया था जिनमें जिन्दा लोगों को पकड़-पकड़ कर उन पर विभिन्न प्रकार की जहरीली गैस आदि के प्रयोग किए जाते थे।

सन् 1936 तक आते-आते ही जर्मनी की अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त होने लगी थी। युद्ध की तैयारियों के लिए हिटलर ने वित्तमन्त्रालय से स्काख्त को हटाकर अपने विश्वासपात्र गोरिंग को आर्थिक क्षेत्रा का तानाशाह बना दिया था। स्काख्त को 1939 में राइख बैंक की अयक्षता से भी हटाकर उसकी जगह फंक को बैठा दिया गया। उद्योगों पर उद्योगपतियों का नियन्त्रण नहीं के बराबर रह गया। नाजी पार्टी ने उनका सिर्फ दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिन तमाम व्यवसायियों ने हिटलर के शासन का उत्साह के साथ स्वागत किया था और उसकी स्थापना में भरपूर योगदान किया था उनका मोहभंग होने में देर नहीं लगी। नाजी पार्टी की ओर से रोजाना उनके पास सिर्फ चन्दे की दरख्वास्ते आया करती थी। हिटलर के जरिए ट्रेड युनियनों को नष्ट करने तथा मजदूरों को सबक सिखाने की इच्छा रखनेवाले उद्योगपति अब स्वयं हिटलर की पार्टी के गुलाम बनकर रह गए थे। नाजी पार्टी को बिल्कुल शुरू से सबसे ज्यादा चन्दा देनेवाला फ्रिट्ज थाइसेन युद्ध शुरू होने के पहले ही जर्मनी छोड़कर भाग गया था। उसने उन्हीं दिनों लिखा कि नाजी शासन ने जर्मन उद्योग का नाश कर दिया है। वह जिनसे भी मिलता था, कहा करता था कि मैं कितना बड़ा मूर्ख था। (शिरेर, पूर्वोक्त, पृ. 360)

न्यूरेमबर्ग मुकदमे के बाद उद्योगपतियों से हिटलर के सम्पर्क स्थापित करनेवाले प्रमुख व्यक्ति फंक को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।

शिरेर ने हिटलर के काल में छोटे-छोटे व्यावसायियों की दुर्गति का भी एक चित्र पेश किया है। छोटे व्यवसायी, जो पार्टी के समर्थकों में प्रमुख थे तथा चांसलर हिटलर से बहुत कुछ की आशा रखते थे, उनमें से अनेक बहुत जल्द ही पूरी तरह नष्ट हो गए तथा उन्हें वेतन भोगी मजदूरों की श्रेणी में देखा जाने लगा। (वही, पृ. 361)

जहाँ तक मजदूरों-कर्मचारियों का प्रश्न है, उन्हें तो हिटलर के काल में तमाम अधिकारों से शून्य हुक्म का गुलाम बनाकर छोड़ दिया गया था। उनकी जिन्दगी हमेशा तूफानी दस्तों के आतंककारी साये में बीतती थी।

आर्थिक क्षेत्रा में हिटलर की चरम तानाशाही से कुछ उद्योगों ने एक काल में अनाप-शनाप मुनाफा बंटोरा, लेकिन हिटलर के शासन का अन्त जर्मनी के तमाम उद्योग-धंधों को विध्वस्त खंडहरों में बदलने के रूप में ही हुआ था।

हिटलर के काल में जर्मन उद्योगों की दुर्दशा के इस लम्बे बयान से हमारा तात्पर्य यही है कि आज भारत में फासिस्ट तानाशाही की शक्तियों में व्यवसायियों का जो तबका अपनी भलाई के स्वप्न देख रहा है, वह इतिहास-बोध से पूरी तरह शुन्य एक बहुत ही अदूरदर्शी और तात्कालिक स्वार्थों तक सीमित तबका है। राजनीतिक तानाशाही का अन्तिम परिणाम अर्थव्यवस्था के क्षेत्रा में भी चरम अराजकता के अलावा और कुछ नहीं होता क्योंकि आर्थिक क्षेत्र में यह तानाशाही शक्तिशाली और सत्ता के निकट रहनेवाले व्यवसायियों के हितों में पूरी अर्थव्यवस्था के अन्य तमाम संघटकों का बुरी तरह नुकसान पहुँचाती है। परिणामत: सिर्फ असंतुलन और अराजकता ही पैदा होते हैं।

भारत में आर एस एस ने अपनी तानाशाही को स्थापित करने के लिए साम्प्रदायिकता का जो ताण्डव शुरू किया है उसके घातक परिणाम अभी से सामने आने लगे हैं। बम्बई आज पूरी तरह क्षत-विक्षत है। उत्तर प्रदेश में थोड़े से दिनों के भाजपाई शासन ने हालत यह पैदा कर दी थी कि उस प्रदेश के छोटे व्यवसायियों को भाजपा सरकार के खिलाफ ही हड़ताल करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। अभी तो आर एस एस के लोग सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधियों तथा स्वतन्त्रचेता बुद्धिजीवियों को ही धमकी भरे पत्रों आदि से डराया-धमकाया करते हैं। यदि इनकी कुछ और शक्ति बढ़ी तो वे ऐसे तमाम लोगों को भी डराया-धमकाया करेंगे जो उनके आदेश के अनुसार उनके अभियानों के लिए चन्दा देने से इन्कार करेंगे।

भारतीय उद्योग का हित भी अन्ततोगत्वा भारत की एकता और अखण्डता में ही है। आर एस एस का रास्ता इस एकता और अखण्डता के बिल्कुल विपरीत है। इसलिए अपने अन्तिम निष्कर्षों में यह रास्ता कभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए किसी भी रूप में हितकारी नहीं हो सकता। हिटलर के काल के जर्मनी के अनुभवों से यही सबक मिलता है।


(सुविधा के लिये यहां उन सभी संदर्भ ग्रंथों की सूची हम नीचे दे रहे हैं, जिनकी मदद से यह पूरी किताब लिखी गयी थी। उपरोक्त लेख में भी इन्हीं ग्रंथों में से कुछ का उल्लेख आया है।)
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Courtesy- अरुण माहेश्वरी जी के फेसबुक वाल से साभार 

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